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214/श्री दान-प्रदीप
है। मैंने भी पूर्वजन्म में अवश्य सुख प्रदान करनेवाला धर्म किया होगा, जिसके कारण मैं इस उच्च कुल और इस प्रकार की सम्पत्ति का स्थान हूं। अतः हे पिता! आप चित्त में विचार करो कि पूर्व के पुण्य से ही संपत्ति की प्राप्ति होती है और पाप से विपत्ति की प्राप्ति होती है।"
यह सुनकर कोप के आटोप से टेढ़ी की हुई भृकुटि के द्वारा भयंकर मुखमुद्रावाले राजा ने उत्संग में से सर्पिणी के समान पुत्री को नीचे उतारा और कहा-"हे पिता के द्रोह रूपी पापवाली! हे अपनी आत्मा को ताप उत्पन्न करानेवाली! हे दुष्टा! दूर हो जा! हे दुष्ट मुखवाली! तेरे सत्कर्म का फल तूं जल्दी ही भोग।"
इस प्रकार उसका तिरस्कार करके राजा ने उसके पाणिग्रहण के लिए जाति, धन और उम्र से रहित, विविध प्रकार की व्याधि से पीड़ित, स्थावर के समान सर्वांग से विनष्ट और सर्वांग में कुलक्षणों से युक्त किसी पुरुष को खोजकर लाने की आज्ञा अपने सेवकों को दी।
यह सुनकर सभासदों ने राजा का क्रोध शान्त करने के लिए कहा-“हे देव! दुष्ट दैव के द्वारा प्रेरित इस मुग्धा को क्या पता है? इसमें बुद्धि कहां से होगी? प्रसन्न हुए आप ही सेवकों के लिए कल्पवृक्ष के समान हैं और कुपित हुए आप ही यमराज से भी ज्यादा दुःख देनेवाले हैं।"
उस समय मदनमंजरी ने हँसते हुए सभासदों से कहा-“हे सभ्यों! सत्यता को जानते हुए भी तुच्छ से धन की लालसा के लिए व्यर्थ ही मुखप्रिय, मुख पर मीठे और खुशामद-भरे वचन क्यों बोलते हो?"
तभी उसकी माता को सारी बात पता चलते ही वह तुरन्त राजसभा में आयीं। उन्होंने पुत्री से कहा-“हे पुत्री! तेरे पिता को तूं जल्दी शांत कर। कठोर वचन बोलकर उन्हें क्रोध से भयंकर मत बना। अन्यथा क्रोधावेश में वे तेरी ऐसी विडम्बना करेंगे, कि तूं जिन्दगी भर के लिए दुःख रूपी समुद्र में डूब जायगी।"
यह सुनकर कुमारी ने अपनी माता से कहा-“हे माता! मैंने अद्वितीय और उत्कृष्ट जीवन रूपी अत्यन्त प्रिय और श्रेष्ठ सत्यव्रत को धारण किया है। इस लोक-संबंधी सुख के लिए मैं कैसे उस व्रत का भंग करूं? बुद्धिमान मनुष्य ईंधन के लिए कल्पवृक्ष का छेदन नहीं करता। भले ही आपत्ति आय, संपत्ति दूर जाय, अत्यन्त अपकीर्ति प्राप्त हो और प्राण भी प्रयाण करने के लिए तत्पर हों, पर सत्यव्रती पण्डित कभी असत्य नहीं बोलते । अतः हे माता! सत्यव्रत में रहते हुए कदाचित् मुझे दुःख भी मिले, तो वह मेरे लिए सुख रूप ही है, क्योंकि स्वर्णालंकारों का भार भी प्रीति की वृद्धि करवानेवाला होता है।"
इस प्रकार परिणाम में हितकारक उसके श्रेष्ठ वचनों ने राजा की क्रोधाग्नि में घी की