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________________ 207/श्री दान-प्रदीप * सप्तम प्रकाश 0 श्री गौतमस्वामी मुझे अक्षय संपत्ति प्रदान करें, क्योंकि तपस्वियों को दी गयी खीर के समान उनके द्वारा प्रदत्त सर्व वस्तुएँ अक्षय होती हैं। अब मोक्षसुख की लक्ष्मी का साक्षी रूप धर्मोपष्टम्भ दान में रहा हुआ आहार दान नामक चौथा भेद कहा जाता है। पुण्यक्रिया में सहायक देह होती है और उसका 'उपादान कारण आहार है। वसतिदान आदि जो कारण पूर्व में कहे गये हैं, वे सब सहकारी कारण हैं। अतः खेती के सर्व व्यापारों में जैसे बीज को बोना मुख्य है, वैसे ही सर्व दानों में आहारदान मुख्य है। जो मनुष्य जिनेश्वर को दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रथम पारणा करवाते हैं, उसे अन्नदान के प्रभाव से उसी भव में या तीसरे भव में अवश्य मोक्ष मिलता है। लोक में भी सर्व दानों की अपेक्षा अन्नदान की प्रधानता सुनी जाती है। श्रीराम बारह वर्षों तक वन में रहकर रावण का हनन करके लंका का राज्य प्राप्त करके जब अयोध्या में आये, तब उन्होंने महाजनों को अन्न की कुशलता पूछी थी। उस समय महाजन एक-दूसरे के मुख को देख-देखकर कुछ-कुछ मुस्कुराने लगे। यह जानकर बुद्धिमान राम ने उन्हें भोजन के लिए निमंत्रण दिया। फिर भोजन का समय होने पर उन सभी को आसन पर बिठाकर बड़े-बड़े थाल सामने रखकर अपने खजाने से अमूल्य रत्न मँगवाकर परोसे। उस समय वे सभी एक-दूसरे के मुख को देखने लगे। यह देखकर राजा राम ने स्मित हास्य के साथ कहा-"आपलोग भोजन क्यों नहीं कर रहे हैं?" तब उन्होंने कहा-"हम इस नवीन रसोई को खाने में शक्तिमान नहीं है।" उनके इस प्रकार कहने पर राजा ने उन्हें उपालम्भ दिया-"तब अन्न की कुशलक्षेम पूछते समय आपलोग उपहास क्यों कर रहे थे? क्या आपलोग नहीं जानते कि समग्र धन से अन्न रूपी धन प्रधान है? राजा से रंक-पर्यंत सभी प्राणी अन्न के बिना मरण को प्राप्त होते हैं। अन्न के द्वारा ही सभी जीवित रहते हैं। जिस अन्न की उत्पत्ति अत्यन्त कष्टपूर्वक होती है और जिसका निरन्तर उपयोग होता है, उसी अन्न रूपी रत्न की कुशलता पूछना योग्य है। कहा है कि पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूरैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा नियोजिता।। 1. घट का उपादान कारण मिट्टी है। 12. घट का सहकारी कारण चक्र, दण्डादि है। 13. यह कथन अजैन रामयण का है।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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