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________________ 205/श्री दान-प्रदीप बनता? फिर गुरु की आज्ञा से मूर्त्तिमान धर्म के समान दो साधु उसके घर आसन की शुद्धता देखने के लिए गये। उस समय श्रेष्ठी ने हर्षित होते हुए अपने पास रहे हुए अन्य छोटे-मोटे आसनों के साथ उस विशाल पाट को भी उपस्थित किया। शुद्ध बुद्धि के द्वारा नव कोटि शुद्ध उस आसन को जानकर साधुओं ने वापस आकर गुरु को उसकी शुद्धि बतायी। फिर गुरु की आज्ञा होने से श्रेष्ठी मानो उसे राज्य मिल रहा हो, उसे फिर से प्राप्त करने की इच्छा से मानो थापण रख रहा हो-इस प्रकार उन मुनियों को वह श्रेष्ट पाट प्रदान किया। मुनियों ने प्रतिलेखना करके उसे गुरु को प्रदान किया। गुरु उस पाट पर विराजे । अहो! उस श्रेष्ठी का अभंग भाग्य कैसा जागृत है! 'महातप की वृद्धि से दैदीप्यमान यम के पिता सूर्य की तरह गुरु उदयाचल पर्वत के समान ऊँचे उस पाट पर शोभित होने लगे। फिर हमेशा प्रातःकाल सच्चक पक्षी को आनंद प्रदान करनेवाली, विविध पुण्य मार्ग को प्रकाशित करनेवाली, जगत के समस्त प्राणियों को प्रतिबोधित करनेवाली और गाढ़ अज्ञान रूपी अन्धकार के सैकड़ों टुकड़े करनेवाली अपनी गवी की श्रेणि का विस्तार करने लगे। उनको निरन्तर पुण्य का उद्योत करते देखकर श्रेष्ठी कोक पक्षी की तरह बारम्बार अत्यन्त आनंद को प्राप्त होता था और विचार करता था-"विशाल सभा में मेरे द्वारा प्रदत्त पाट पर गुरु महाराज बैठकर पापनाशक धर्मदेशना प्रदान करते हैं। अन्य भी मुनि मेरे द्वारा दिये गये आसनों पर सुखपूर्वक बैठकर वाचना, अध्ययनादि पुण्य क्रिया करते हैं। अतः अवश्य ही मेरा अन्यून पुण्य उदय में आया है, क्योंकि कारण की सुन्दरता के बिना कार्य की सुन्दरता नहीं बन सकती। आज सभी श्रावकों की संख्या में मेरी प्रथम रेखा विकास को प्राप्त हुई है। आज मेरी सर्व सम्पत्ति सफल हुई है। अतः मैं मानता हूं कि थोड़े ही समय में मेरे कोई आश्चर्यकारक महान उदय होगा। रात्रि के अन्त में प्रकाश का उदय सूर्य के उदय का ज्ञान कराता है।" इस प्रकार वह श्रेष्ठी श्रेष्ठ अनुमोदना रूपी गंगा नदी के जल द्वारा अपने दान-पुण्य रूपी कल्पवृक्ष को उस-उस प्रकार से निरन्तर सींचता रहता था, कि जिससे वह वृक्ष सैकड़ों शाखाओं के द्वारा विस्तृत होता हुआ क्षय को प्राप्त न हो। फिर वह वृक्ष सुन्दर छाया प्रदान करते हुए थोड़े समय में ही मोक्ष रूपी फल का प्रदाता बने। इस प्रकार शुद्ध बुद्धियुक्त उस श्रेष्ठी ने अभंग रंग के द्वारा जीवन-पर्यन्त चिंतामणि रत्न की तरह अपने अभिग्रह का आराधन-पालन किया। उसके बाद सम्यग् प्रकार से विधिपूर्वक उस भव का त्याग करके हे राजा! शुद्ध आसन के दान के पुण्य के प्रभाव से प्रशस्त तीन वस्तुओं के साथ इस विशाल 1. सूर्य के पक्ष में अत्यधिक धूप/गुरु के पक्ष में विशाल तप। 2. अच्छा चक्रवाक पक्षी/सत्पुरुषों का समूह। 3. किरणे/वाणी-देशना।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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