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190/श्री दान-प्रदीप
को भी सरलता ही समझा जाता है। वाचालता हो, तो उसे हुशियार माना जाता है। पात्र-अपात्र के विवेक का ज्ञान न हो, तो उसे उदार माना जाता है। उसमें उद्धतता हो, तो तेजस्विता मानी जाती है। धनवान के कौन-कौनसे दोष गुणरूप नहीं होते? गुणवान हो, पूज्य हो, प्रतिष्ठा–प्राप्त हो, तो भी वित्तरहित मनुष्य प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता। शास्त्रों में भी सुना जाता है-दशरथ के पुत्र भारत पृथ्वी के राजा बने और पिता की आज्ञा के आधीन राम ने वन में प्रयाण किया। उस समय श्रीराम किसी वन में आये। उन्हें पहचानते हुए भी तापसों के स्वामी ने उनके सामने जाना, खड़े होना आदि कुछ भी सत्कार नहीं किया। फिर बारह वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद रावण का लीलामात्र में उन्मूलन करके अलंकार के समान लंका का राज्य प्राप्त करके विशाल ऋद्धियुक्त श्रीराम जब पुनः उसी आश्रम में लौटे, तो वही तापसपति उनके सन्मुख गया, फलादि अर्पण किये और अर्ध्य आदि के द्वारा उनका सत्कार किया। यह देखकर राम ने उनसे कहा-"तुम वही हो, मैं भी वही हूं और आश्रम भी वही है। पहले जब मैं यहां आया था, तो तुमने मेरा कुछ भी आदर नहीं किया था। तो फिर आज इतना आदर क्यों कर रहे हो?"
तब तापसपति ने कहा-“हे राम! धन का उपार्जन करो। इस जगत में समस्त वस्तुओं का कारण धन ही है। निर्धन और मरे हुए व्यक्ति में मैं कुछ भी अन्तर नहीं मानता हूं।"
धन केवल इस लोक में ही महत्त्वादि का कारण है-ऐसा नहीं है, बल्कि धर्म का अद्वितीय कारण होने से परलोक में भी महत्त्वादि का कारण है, क्योंकि धनरहित गृहस्थाश्रमी का मन निरन्तर अपनी आजीविका में ही आकुल-व्याकुल बना रहता है, जिससे वह एकाग्रचित्त होकर धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकता। तो फिर धर्म का अनुष्ठान करना तो बहुत दूर की बात है। धनोपार्जन में व्यग्र व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होता। श्रद्धायुक्त प्राणी भी धन के बिना चैत्य करवाना, प्रतिमा भरवानी, जिनपूजा करना, महोत्सव करना, तीर्थयात्रा करना, तप का उद्यापन करना, ज्ञान लिखवाना, संघ की भक्ति करना, दया-दान करना और किसी पर उपकार करना आदि धर्मकार्यों को जरा भी साध नहीं सकता, क्योंकि धन के बिना ये सभी कार्य असंभव है। धर्म का कारण धन है-यह बात सिद्ध हो जाने से सिद्धि का कारण भी धन ही सिद्ध होता है। धन से धर्म होता है, धर्म से कर्मक्षय होता है और कर्मक्षय से मोक्ष होता है। इस पर दण्डवीर्य राजा की कथा सुनो___ अयोध्या नगरी में आदीश्वर भगवान के वंश में आठवें पाट पर राजा दण्डवीर्य हुआ। वह महापराक्रमी और भरत के तीन खण्डों का स्वामी था। सोलह हजार राजा उसकी सेवा में रहते थे। वह निरन्तर सम्यग् प्रकार से विधिपूर्वक धर्म की आराधना करता था। मैं जितने साधर्मिकों को जानता हूं, उन्हें खिलाकर फिर स्वयं भोजन करूंगा'-इस प्रकार का उग्र