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________________ 169/ श्री दान-प्रदीप यह सुनकर राजा स्वयं उद्यान में जाने की तैयारी करने के लिए उद्यत हुआ, तभी श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त कुमार ने विनति करते हुए कहा-“हे देव! मृग पर केशरी सिंह की तरह एक पशु मात्र के लिए महापराक्रमी आपके द्वारा पराक्रम करने का आरम्भ क्यों? आप कृपा करके इसके लिए मुझे आज्ञा प्रदान करें, जिससे मैं शीघ्र ही उसे वश में करके आपके पास ले आऊँ।" यह सुनकर राजा ने कहा-“हे वत्स! तुमने ठीक कहा। तुमने न केवल अपनी शूरवीरता ही प्रकट की है, बल्कि निष्कपट रूप से पिता के प्रति अपनी भक्ति भी प्रकट की है। अतः तुम इस कार्य को जरूर करो।" __राजा के कथन को सुनकर प्रौढ़ प्रताप से युक्त कुमार सैन्य परिवार के साथ घोड़े पर आरूढ़ होकर उस उद्यान में गया। वहां कमलनाल की तरह चारों तरफ वृक्षों को उखाड़-उखाड़कर फेंकते हुए हाथी को देखकर उसकी तर्जना करते हुए राजपुत्र ने कहा-"अरे पापी! इन अपार वृक्षों को उखाड़ने का क्या मतलब? अगर तुझमें थोड़ी भी शूरवीरता है, तो तूं मेरे साथ युद्ध कर।" इस प्रकार कुमार ने उस पर आक्षेप किया। तब क्रोध से धमधमाता हुआ हाथी अपनी सूंड उठाकर दांतों को दिखाते हुए कुमार की और दौड़ा। कुमार ने भी तुरन्त घोड़े से उतरकर धैर्यपूर्वक अपने उत्तरीय वस्त्र की गेंद बनाकर हाथी पर फेंकी। हाथी ने कोपपूर्वक - उस गेंद पर दन्तप्रहार किया। उस समय अतुल पराक्रमी कुमार सिंह की तरह उसके दांतों पर पैर रखकर उस पर चढ़ गया। हाथी सभी के देखते ही देखते आकाश में उड़ गया। बिजली के प्रकाश की तरह वह तुरन्त अदृश्य हो गया और विविध रत्नों की शोभा को धारण करनेवाले वैताढ्य पर्वत पर श्रीपुर नामक नगर की सीमा को शोभित करनेवाले और सुशोभित वृक्षों की श्रेणि से मनोहर उद्यान में गया। फिर हाथी के रूप का त्याग करके विद्याधर के अद्भुत रूप को प्रकट करके कोमल वाणी के द्वारा कहा-“हे स्वामी! क्षणभर इस अशोक वृक्ष के नीचे बैठे। तब तक मैं आपके आगमन का समाचार विद्याधर राजा को देकर आता हूं।" ऐसा कहकर वह चला गया, तब कुमार ने विचार किया-"यह विद्याधर इस प्रकार कपटपूर्वक मुझे इस पर्वत पर क्यों लाया है? पर चिन्ता करने से क्या फायदा? प्राणियों के पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म ही संपत्ति और विपत्ति प्रदान करते हैं। मैं तो मनुष्यों के नेत्रों और हृदय को आनंद प्रदान करनेवाले इस उद्यान की शोभा को देखू।" इस प्रकार विचार करके वह चारों तरफ घूमने लगा। उस समय दूर किसी केले के मण्डप में रही हुई सुन्दर आकृतिवाली एक कन्या को सखियों के साथ देखकर लताओं के
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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