________________
161/श्री दान-प्रदीप
सुख उपजानेवाले वसतिदान के उत्कृष्ट पुण्य का फल श्रवण करके शुद्ध भाव से निरन्तर वसतिदान में आदरयुक्त बनना चाहिए, जिससे तत्काल सिद्धवधू आपका वरण करे।
|| इति चतुर्थ प्रकाश।।
* पंचम प्रकाश @
शालिभद्रादि की विभूतियाँ जिसके लिए लीलामात्र हैं, ऐसा निःसीम माहात्म्यवाला पात्रदान रूपी कल्पवृक्ष जयवन्त है। अब उपष्टम्भ नामक तीसरे दान के शयनदान नामक द्वितीय भेद को बताया जाता है। यह अत्यन्त सुकृत का स्थान है। वर्षाकाल और शेषकाल की अपेक्षा से शयनदान दो प्रकार का है। निर्दोष व उत्तम काष्ठ का बना हुआ शयन प्रथम भेद के अन्तर्गत आता है और ऊनादि बनाये हुए कम्बलादि वस्त्र द्वितीय भेद शेषकाल के शयन कहलाते हैं। उत्तम आचारयुक्त मुनियों को ऐसा ही शयन शोभा देता है। सामान्य लोगों को भी अगर शयनदान दिया जाता है, तो उससे अगण्य पुण्य प्राप्त होता है, तो फिर जिन्होंने घर का ही त्याग कर दिया है और जो निरन्तर स्वाध्याय-ध्यानादि में लीन रहते हैं, उनको शयनदान करने से अगण्य पुण्य हो, तो इसमें क्या आश्चर्य? जो मनुष्य मुनियों के विश्राम के लिए शयनदान करता है, संसार में भ्रमण करके खेद पाये हुए उसको मोक्ष में सरलता से विश्राम प्राप्त होता है, क्योंकि मोक्ष की सिद्धि करनेवाले उन मुनियों के संयम-योगों में उसने शयनदान के द्वारा सहायता प्रदान की है।
यहां किसी को शंका उत्पन्न होती है कि शयन प्रमाद का कारण होने से उसका दान मुनियों को करना योग्य नहीं है। पर ऐसी शंका निराधार है, क्योंकि मुनि शास्त्रोक्त विधि के अनुसार शयन करते हैं। वे भाव से निरन्तर जागृत ही रहते हैं। अतः बुद्धिमान पुरुष को फल की इच्छा रखे बिना विशुद्ध भावों के साथ मुनियों को शयन का दान करना चाहिए। कुशल पुरुषों में श्रेष्ठ जो पुरुष मुनि को शयनदान देता है, वह पद्माकर की तरह आवृत्ति रहित विशाल च अद्भुत संपदा को प्राप्त करता है। पद्माकर की कथा इस प्रकार है :
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में भूमि रूपी स्त्री के तिलक के समान, देवनगर की स्पर्धा करनेवाला और लक्ष्मी के समूह से वृद्धि को प्राप्त पुष्पपुर नामक नगर था। सर्व सुखों के स्थान रूपी उस नगर में एक साथ रहने की इच्छा से लक्ष्मी और सरस्वती ने मानो अपने