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154/श्री दान-प्रदीप
करवाकर राजा ने आनंदपूर्वक नगर में प्रवेश करवाया। फिर कुमार को अपने महल में ले गये। पिता की आज्ञा से कुमार ने अगणित पवित्र लावण्ययुक्त देवांगनाओं को पराजित करनेवाली राजकन्याओं के साथ परिणय किया।
एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में ज्ञानियों के शेखर राजा ने 'दो प्रकार से विचार किया-"दीपक की लक्ष्मी जैसे तेल का नाश करती है, वैसे ही पूर्वपुण्य से प्राप्त की गयी यह राज्यलक्ष्मी भोगने से पूर्वपुण्य का नाश करती है। अर्थात् जैसे-जैसे राज्यलक्ष्मी भोगी जाती है, वैसे-वैसे पूर्व के पुण्य का नाश होता जाता है। अतः जब तक पूर्व पूण्य का संपूर्ण नाश न हो, तब तक नये पुण्यों का उपार्जन करना ही मेरे लिए श्रेष्ठ है। धनरहित मनुष्य को जैसे वेश्या त्याग देती है, वैसे ही पुण्यहीन पुरुष को लक्ष्मी त्याग देती है, फिर भले ही वह कला-संपन्न क्यों न हो। नवीन मेघों की वृष्टि से जैसे पृथ्वी पर चारों तरफ लताएँ (औषधियाँ) अंकुरित होती हैं, वैसे ही पुण्य के द्वारा प्राणियों के चारों तरफ से संपदा अंकुरित होती है अर्थात् प्राप्त होती हैं। परभव में एकमात्र पुण्य से ही जीव सुखी बनता है, अन्य किसी भी वस्तु आदि से सुखी नहीं बनता, क्योंकि जीव के साथ परभव में केवल पुण्य ही जाता है, अन्य कोई नहीं। कुमार भी अब साम्राज्य का भार उठाने में समर्थ है। अतः अब उसको राज्य सौंपकर मेरे लिए दीक्षा लेना ही उचित है।" ।
इस प्रकार ध्यान की श्रेणि के द्वारा उसके मन में प्रकाश उत्पन्न हुआ। फिर प्रातःकाल जिनपूजादि धर्मकार्य करके कर्त्तव्य के ज्ञाता राजा ने अमात्यों व सामन्तों आदि को बुलाकर अपना अभिप्राय बताया। सभी ने मोहवश राजा को सहमति प्रदान नहीं की, तब जबर्दस्ती उनकी सहमति से राजा ने विराट उत्सवपूर्वक तारचन्द्र को साम्राज्य सौंपा। उसके अभंग वैराग्य के रस के पूर के द्वारा तरंगित हुए राजा ने सर्व जिनचैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव करवाया और फिर किन्हीं आचार्य के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। पण्डित पुरुष सदैव अवसर के अनुकूल ही व्यवहार करते हैं। फिर दुष्कर चारित्र की आराधना करके दुष्कर तपस्या करके राजर्षि ने स्वर्ग-सम्पत्ति को प्राप्त किया। तपस्वियों के लिए क्या दुर्लभ है?
उसके बाद तारचन्द्र राजा नवोदित सूर्य की तरह दीप्तिमान बनने लगा। उसकी उदीयमान प्रभा से शत्रु क्षण-क्षण में अंधकार की भांति त्रस्त होने लगे। उसने कुरुचन्द्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया। बड़े लोगों के साथ की गयी मैत्री प्राणियों को कल्पलता के समान फल प्रदान करती है।
एक बार राजा ने रत्नपुर से आये हुए किसी मनुष्य के मुख से श्रवण किया कि
1. द्रव्य और भाव से। 2. धन-पुत्रादि।