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________________ 5/श्री दान-प्रदीप पूर्ण करते हैं। तृतीय प्रकाश : अभयदान की महत्ता, विवेचन, देश व सर्व से दया का विवेचन एवं उस पर शंख श्रावक की कथा-इसमें अभयदान का माहात्म्य बताया गया है। मन, वचन व काया के योग द्वारा करना, करवाना एवं अनुमोदन करना-इन तीन प्रकार से त्रस व स्थावर-सभी जीवों के वध से दूर रहना सर्वथा अभयदान कहलाता है। यह सर्वसंग का त्याग करनेवाले मुनियों में ही संभव है। देश से अभयदान मोक्ष की साक्षात् साक्षी रूप है-इत्यादि अभयदान की विस्तृत व्याख्या करके अन्यदर्शनी ऋषि कपिल का भी प्राणियों के प्रति दया रखने का मत उन्हीं के शास्त्रों से बताया गया है। जैनदर्शन के महापुरुषों-श्रीशांतिनाथ भगवान के पूर्वभव का कबूतर को अभयदान देने के लिए तथा श्रीसुव्रतस्वामी का भरुचनगर में अश्व की रक्षा करने के लिए, श्रीमहावीरस्वामी द्वारा लोगों को अभयदान देने के लिए शूलपाणि यक्ष के द्वारा दी गयी अगणित व्यथाओं को सहन करने के लिए, मेतार्य मुनि के द्वारा क्रौंच पक्षी को बचाने के लिए, धर्मरुचि मुनि द्वारा चींटियों को अभयदान देने के लिए, कुमारपाल राजा द्वारा अपने अठारह देशों में अभयदान की प्रवृत्ति चलाने के लिए अमारि पटह बजवाने का दृष्टान्त देकर अभयदान का स्वरूप बहुत ही प्रभावशाली रूप से बताया है। इसी के साथ शंख श्रावक और उसके तीन मित्रों का विस्तृत चरित्र बताकर उसी के अंतर्गत चोर की कथा तथा श्रीज्ञानशूर नामक मुनिराज की धर्मदेशना बतायी गयी है। अन्त में शंख श्रावक ने अपूर्व जीवदया के पालन से अतुल लक्ष्मी-वैभव प्राप्त किया। वहां से मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और वहां से च्यवकर विजयनगर में विजयसेन राजा की विजया रानी की कुक्षि से जय नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पूर्वभव में अभयदान देने के कारण यहां पर भी समृद्धि प्राप्त की। अन्त में वैराग्य उत्पन्न होने पर घाती कमों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। तत्काल देवताओं ने उन्हें मुनिवेश प्रदान किया। फिर अनेक प्राणियों को प्रतिबोधित करके आयुष्य का क्षय होने पर मोक्ष-सम्पदा प्राप्त की। यह शंख श्रावक का चरित्र पाठक-वर्ग को आश्चर्यकारक, कानों को सुखकारक और आत्मा को कर्ममुक्त बनाकर परमात्म-स्वरूप प्रकट करानेवाला है। इस प्रकार यह प्रकाश पूर्ण होता है। चतुर्थ प्रकाश :-धर्मोपष्टम्भ दान का स्वरूप, प्रकार, वसतिदान -इस प्रकरण में धर्मोपष्टम्भ दान का स्वरूप दर्शाया गया है। इस दान को देने से धर्म का उपष्टम्भ/उपकार /अवलम्बन होता है। इसमें जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार के पात्र होते हैं। समकितधारी जघन्य, देशविरति श्रावक मध्यम व सर्वविरति मुनि उत्कृष्ट पात्र कहलाते हैं। समकित आदि गुणों से युक्त श्रावक भी पूजनीय होते हैं, क्योंकि सत्यपुरुषों के सत्यबन्धु होने से वे साधर्मिक भाई कहलाते हैं। उन पर प्रेमभाव रखकर अन्न-वस्त्रादि से उनकी भक्ति
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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