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141 / श्री दान- प्रदीप
अब मुधा - जीवी का दृष्टान्त कहते हैं
धराधर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। उसमें अत्यन्त तेजयुक्त यथार्थ नामवाला जितशत्रु राजा राज्य करता था । राजा लघुकर्मी होने से स्वयं ही संसार से वैराग्य को प्राप्त हुआ। बुद्धिमान पुरुष धर्ममार्ग में प्रवृत्त होने के लिए अन्यों के उपदेश की अपेक्षा नहीं रखते। भिन्न–भिन्न दर्शनियों के द्वारा निरुपण किये गये धर्म को सुनकर राजा के मन में धर्म के विषय में शंका उत्पन्न हुई। अतः राजा ने परीक्षा लेनी शुरु कर दी । विद्वान पुरुष परीक्षा करके ही धर्म को ग्रहण करते हैं। फिर राजा ने घोषणा करवायी - "हे भिक्षुकों ! आओ-आओ । राजा मन को प्रसन्नता देनेवाले मोदकों का दान कर रहे हैं।"
यह सुनकर कापडी आदि सर्व जाति के भिक्षुक वहां आये । एक- एक को अलग से राजा ने पूछा - "तुमलोग किस प्रकार से आजीविका चलाते हो?"
यह सुनकर किसी एक ने कहा - " मैं मुख के प्रसाद से जीता हूं।"
राजा ने उससे पूछा - "कैसे?"
तब पहले ने उत्तर दिया- "मैं कथक अर्थात् कथा कहनेवाला हूं। मैं कथा कहकर मनुष्यों को आश्चर्य प्राप्त करवाकर उनके पास से द्रव्य ग्रहण करके अपनी आजीविका चलाता हूं। अतः मेरा मुख ही मेरी जीविका का साधन है ।"
दूसरे ने कहा- "मैं हाथ के हुनर से जीता हूं।”
ने
पूछा—“कैसे?”
राजा
उसने कहा—“मैं लेखक हूं। अतः हाथ के द्वारा लेखादि लिखकर अपनी आजीविका चलाता हूं। अतः हाथ के द्वारा ही जीता हूं।"
तीसरे ने कहा- "मैं चलने के प्रभाव से जीता हूं।"
राजा ने पूछा—“कैसे?”
उसने कहा-“मैं डाकिया हूं। एक घड़ी में एक योजन चलता हूं। अतः पैर ही मेरा जीवन है। पैरों के द्वारा ही मैं आजीविका चलाता हूं।"
चौथे ने कहा- "मैं मनुष्यों के अनुग्रह से जीता हूं।"
राजा ने पूछा - "कैसे?"
उसने कहा- "मैं भिक्षुक हूं। मैंने प्रव्रज्या ग्रहण की है। अतः सभी मनुष्य मुझ पर अनुग्रह रखते हैं, जिससे मैं जीवित रहता हूं।”
पाँचवें ने कहा- "वैद्य की क्रिया के द्वारा मैं जीता हूं।"