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128/ श्री दान-प्रदीप
कुछ ही दूरी पर गया होगा कि सामने से कुछ चोर आ गये। शस्त्रधारी होने के कारण वे भयंकर प्रतीत होते थे। ‘जल्दी मारो-जल्दी मारो'-इस प्रकार चिल्लाते हुए वे सार्थ में घुस गये। शंख ने मन में धैर्य धारण करके उनसे कहा-"तुम हमें क्यों मारते हो? तुम्हे धन से प्रयोजन है। अतः तुम धन ले लो, पर हमे छोड़ दो।"
शंख के इस प्रकार कहने से कितने ही चोर सार्थ को लूटने लगे। पर कुछ लोगों ने शंख को पहचान लिया और चोरों को मना करते हुए कहा-"अहो! हम सभी को जीवनदान दिलानेवाला वह यही महासत्त्ववान पुरुष है, जिसने कुछ समय पहले ही यमराज के समान भयंकर पल्लीपति के बंधन से हमें मुक्त करवाया था। अतः यह तो हमारे लिए पिता के तुल्य व पूजनीय है। पर इसे दुःख देना ठीक नहीं है।"
यह कहकर वे लोग उसे भक्तिपूर्वक अपने घर पर ले गये और उसका सत्कार किया। शंख ने उनको भी उपदेश देकर दयाधर्म स्वीकार करवाया। बुद्धिमान पुरुष कदापि धर्म का उपकार करने में अटकते नहीं। फिर वे चोर भी हर्षपूर्वक उसे छोड़ने के लिए बहुत दूर तक गये। इस प्रकार धर्मवन्तों में मुख्य वह शंख सुखपूर्वक अपने घर पर पहुँचा।
उसके समागम से उसके माता-पिता अत्यन्त खुश हुए। पुत्र व धन की प्राप्ति से कौन खुश नहीं होता? फिर राजा, सेनापति और पुरोहित को शंख ने उनके पुत्रों की हकीकत कही। यह सुनकर वे लोग अत्यन्त खेद को प्राप्त हुए। प्राणीहिँसादि दुष्कर्मों में मग्न दुर्बुद्धि युक्त पुत्र हो, तो पितादि व अन्यों के लिए भी वह दुःख का ही कारण बनता है।
फिर समस्त कलाओं में निपुण शंख को अपना कार्यभार सौंपकर श्रेष्ठ बुद्धियुक्त श्रेष्ठी ने परलोक को साधा। निर्मल दयाधर्म का पालन करने से दिन-दिन शंख का उदय होता गया और इस कारण वह सर्व स्थानों पर मुख्यता को प्राप्त हुआ, क्योंकि गुणों से ही गौरव प्राप्त होता है। शंख के समान उज्ज्वल कीर्ति के द्वारा दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ शंख परस्पर बाधारहित धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को साधने लगा। इस प्रकार श्रावक धर्म की आराधना करके विधियुक्त मरण प्राप्त करके भवनपति में एक पल्योपम की आयुष्यवाला देव बना। राजा, सेनापति और पुरोहित के पुत्र रौद्रध्यान के कारण मरकर अत्यन्त दुःख से युक्त पहली नरक में गये।
एक बार श्रेष्ठ बुद्धिमान शंख देव ने अवधिज्ञान से पूर्वभव देखकर यह जाना कि उसे दया रूपी कल्पलता का ही यह फल प्राप्त हुआ है। इससे उसने विचार किया-"अभी भी मैं ऐसा कुछ करुं कि जिससे अगले भव में भी मुझे सम्यग् प्रकार से दयाधर्म का आराधन प्राप्त हो।"