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118/श्री दान-प्रदीप
का पात्र है। तूं आज मुनियों के द्वारा भी मान्य हो गया है, क्योंकि तुमने आज धर्मवृक्ष के बीज रूपी जीवदया को पाया है। इस जीवदया के द्वारा ही तुझे सर्व संपत्तियाँ सुलभ होंगी।"
भद्रक ने भक्तिपूर्वक मुनि को नमन किया और दयाधर्म की प्राप्ति होने से अपनी आत्मा को धन्य मानता हुआ अपने ग्राम में लौट गया। सम्यग् धर्म के प्रभाव से वह शुद्ध व्यवसाय करने लगा, जिससे उसकी व उसके परिवार की आजीविका का निर्वाह सुखपूर्वक होने लगा। जीवन-पर्यन्त दयाधर्म का अचरण करते हुए वह भद्रक अन्त में विधिपूर्वक मरण प्राप्त करके वह कहां उत्पन्न हुआ और कैसी समृद्धि उसने पायी? यह मैं आगे बताता हूं। तुम सुनो।"
"इस भरतक्षेत्र में श्वेताम्बिका नामक नगरी है। वहां सज्जन और दुर्जन-सभी सदाचार का पालन करते हैं। उस नगरी में अत्यधिक विशाल सेना का स्वामी वीरसेन नामक राजा राज्य करता था। उसकी खड्ग रूपी शय्या में जय रूपी लक्ष्मी सुखपूर्वक विश्राम करती थी। उस राजा के वप्रा नामक प्रिया थी। उसके हृदय में सदैव पुण्य रूपी तरंगें उछला करती थीं|उसका शील सुकृत रूपी लक्ष्मी का रक्षण करने में किले के समान था।
भद्रक का जीव उसकी कोख में सिंह के स्वप्न के द्वारा सूचना करता हुआ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। वह तेजराशि सूर्य के समान लक्ष्मी का स्थान रूप शोभित होता था। वह पुत्र एक माह की उम्रवाला हुआ। उस समय वीरसेन राजा पर उसके शत्रु मानभंग राजा ने आक्रमण कर दिया। बड़े-बड़े अश्वों के पैरों की खुर से उड़ी हुई धूल दिन को भी रात्रि बना रही थी। मदोन्मत्त हाथियों के समूह की मदवारि का प्रवाह वर्षाऋतु के बिना भी समग्र मार्ग को कीचड़युक्त बना रहा था। योद्धाओं की चमकती तलवारें चारों तरफ आकाश में बिजली-सी चमक पैदा कर रही थी। वह मानभंग राजा अगणित सैनिक-समूहों के साथ श्वेताम्बिका नगरी की सीमा में पहुंचा। यह जानकर वीरसेन राजा भी अपने विशाल सैन्य के साथ उसी तरह चला, जिस तरह गजेन्द्र के सामने सिंह जाता है। दोनों की सेनाओं के मध्य उग्र युद्ध हुआ। कहीं भालों के द्वारा, कहीं तलवार के द्वारा और कहीं बाणों के द्वारा युद्ध होने लगा। उस युद्ध में महाबलवान वीरसेन राजा के सेनापति ने मानभंग राजा के सेनापति को पृथ्वीपीठ पर कटे वृक्ष की तरह गिरा दिया। यह देखकर मान रूपी धन से युक्त मानभंग राजा क्रोध से रक्तमुखवाला होकर वीरसेन राजा के साथ युद्ध करने के लिए दौड़ा। सुर-असुर को त्रास पैदा करनेवाला उन दोनों का भयंकर युद्ध देखकर मानो विजयलक्ष्मी भी सहम गयी हो-इस प्रकार एक बारगी तो उसने दोनों को ही नहीं वरा । अन्त में दैवयोग से वीरसेन राजा देवगति को प्राप्त हुआ। उसका राज्य मानभंग राजा ने अपने वश में कर लिया। यह देखकर शील के लोप के भय से व्याकुल बनी वप्रा महारानी भय से कांपने लगी। पुण्य की क्यारी रूप उस एक मास के बालक को लेकर वहां से भाग गयी। भयभ्रान्त