________________
109/ श्री दान- प्रदीप
प्रशंसनीय और सर्व जनों का प्रिय करनेवाले तुम सब को इस पापी योगी ने कैसी दुर्दशा प्राप्त करवायी है? तुम्हारे बिना मैं अकेला इस दुर्गम मार्ग में कैसे जा पाऊँगा? तुम्हारे विरह मैं कैसे काल का निर्गमन करूंगा?"
इस पर अपने करुण विलाप के द्वारा वन के भयंकर पशुओं को भी रुलाते हुए शंख साक्षात् यमराज के समान भयंकर उस वन में से किसी तरह बाहर निकला । मानो नया जन्म 1 प्राप्त किया हो - इस प्रकार मानते हुए और अपने मित्रों का स्मरण करते हुए शंख किसी ग्राम में पहुँचा। शल्य के समान अत्यन्त शोक से विह्वल व पीड़ित वह वहां दो-तीन दिन तक रहा और मित्रों की उत्तरक्रिया / मरणक्रिया की । फिर उसने विचार किया कि अगर मैं अभी मेरे नगर में जाऊँगा, तो मित्रों के पितादि और पुरजनों को क्या मुँह दिखाऊँगा। अतः ऐसा विचार करके अत्यन्त दुःखित वह अन्य दिशा में गमन करने लगा, क्योंकि महापुरुष अल्प अकार्य में भी शंका को प्राप्त होते हैं।
मार्ग में चलते हुए उसे सुमेघ नामक श्रावक मिला, जो चारित्र ग्रहण करने के लिए किसी सद्गुरु के पास जा रहा था। स्नेह रूपी वृक्ष के अंकुरों के समान उन दोनों में परस्पर स्नेह - वार्त्तालाप हमेशा ही होने लगा, जिससे उन्हें मार्ग भी छोटा लगता । थोड़े ही समय में उन दोनों में भाइयों के समान प्रीति हो गयी । शुद्ध अंतःकरणवालों की प्रीति सुखपूर्वक साध्य होती है। उनका कोई निरोध नहीं कर सकता ।
एक दिन सुमेघ श्रावक ने उससे पूछा - "हे बंधु ! तुम खेदयुक्त क्यों दिखायी देते हो? अगर अकथनीय न हो, तो मुझे जरूर बताओ ।"
I
यह सुनकर शंख के नेत्रों में आँसू आ गये । उसने आदि से अन्त तक का सारा वृत्तान्त T उसे बताया। मित्रादि के सामने दुःख का कथन करने से थोड़े समय के लिए ही सही, दुःख कम पड़ जाता है। सारी बात सुनकर आश्चर्य को प्राप्त सुमेघ ने कहा-“अहो ! प्राणियों का रक्षण करने में तत्पर तुम्हारी बुद्धि प्रशंसनीय है । अहो ! तुम्हारा साहस कैसा आश्चर्यकारक है! जो कि प्राणों के संदेह में भी नष्ट नहीं हुआ । तुम्हारे इस पवित्र चरित्र को सुनकर कौन प्रसन्न नहीं होगा? तूं पण्डित है। अतः मित्रों के लिए शोक करना उचित नहीं है । प्राणियों का घात करके उन्होंने स्वयं ही अपनी मौत को निमंत्रण दिया है, क्योंकि जीवहिँसा सर्व आपत्तियों का स्थान है, समग्र सुखों का नाश करने में राक्षसी के समान है । लँगड़ा बनना, अंग की विकलता होना, कुष्ठादि व्याधियाँ होना, लूला होना आदि अन्य भी अनेक प्रकार की आपत्तियाँ इस लोक में हिँसा रूपी विषलता के प्रत्यक्ष फल हैं। अहिंसा ही संसार रूपी समुद्र को तैरकर पार करने के लिए विशाल जहाज के समान है। सर्व दुःख रूपी दावानल को बुझाने के लिए आषाढ़ मास के मेघ के समान है। तुम्हें तो इसी भव में अभयदान रूपी