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95/श्री दान-प्रदीप
से अपने सिंहासन की वेदिका बनवायी और फिर कारीगरों को मार डाला। वास्तव में राजा निर्दयी ही होते हैं। उस वेदिका के ऊपर राजा ने अपना सिंहासन स्थापित किया। लोगों को ऐसा लगने लगा कि राजा की सत्यवादिता के कारण यह सिंहासन अधर में रहता है। "अहो! इनके सत्य से तुष्ट देवता इनकी सेवा में रहते हैं"-इस प्रकार सर्वत्र राजा की प्रसिद्धि ने दिशाओं को वाचाल बना दिया। सीमा से लगे हुए राज्यों के राजा भयभीत होकर वसु राजा की सेवा करने लगे। मनुष्यों की ख्याति सत्य हो या असत्य, जयप्रदाता तो होती ही है। ___एक बार नारद उस शुक्तिमती नगरी में आया। वसुराजा और पर्वतक-दोनों ने प्रीतिपूर्वक उसका सत्कार किया, क्योंकि वे तीनों परस्पर गुरुभ्राता जो थे। उस समय बुद्धिसंपन्न प्रवर्तक अपने बुद्धिमान शिष्यों को यजुर्वेद का व्याख्यान दे रहे थे-पढ़ा रहे थे। उसमें 'अजैर्यष्टव्यं वाक्य आया। बकरों द्वारा यज्ञ करना चाहिए-ऐसा अर्थ पर्वतक ने किया। उस समय नारद ने कहा-"हे बन्धु! भ्रान्तिवश आप गलत अर्थ क्यों कर रहे हैं? गुरुदेव ने तो हमें ऐसा अर्थ बताया था कि जिसमें पुनः उगने की क्षमता न हो, ऐसा तीन वर्ष पुराना धान्य अज कहलाता है। क्या आप यह अर्थ भूल गये हैं?"
यह सुनकर पर्वत के समान गर्वोन्नत पर्वतक ने कहा-"गुरुदेव ने तो अज का अर्थ बकरा ही बताया था, तीन वर्ष पुराना धान्य नहीं। तुम ही मिथ्या अर्थ कर रहे हो। श्रेष्ठ मुनियों के शब्दकोष में भी अज का अर्थ मेष अर्थात् बकरा लिखा हुआ है।"
तब नारद ने कहा-"शब्द का अर्थ दो प्रकार से होता है-मुख्य व गौण। गुरुदेव ने गौणवृत्ति से यह अर्थ कहा था। श्रुति (वेदवाणी) धर्म का प्रतिपादन करनेवाली ही होती है और गुरु करुणायुक्त होते हैं। अतः इन दोनों में से कोई भी जीव-हिंसा का उपदेश कर ही नहीं सकते। अतः इस प्रकार के कदाग्रह के कारण गलत अर्थ बता करके वेद और गुरु की आशातना करके तूं नरकगामी न बन।"
यह सुनकर पर्वतक ने आक्षेपपूर्वक कहा-"गुरुदेव ने अज का अर्थ बकरा साक्षात् रूप में किया था। अतः गुरु-कथन के विपरीत व्याख्यान करके क्या तूं स्वर्ग में जायगा? अगर मेरे वचन अन्यथा हों, तो मैं मेरी जिह्वा के छेदन की प्रतिज्ञा करता हूं। अगर तेरे हृदय में दृढ़ता है, तो तूं भी यही प्रतिज्ञा कर। इस विषय में हमारे सहपाठी बन्धु वसु राजा हमारे लिए प्रमाण रूप हों। सत्यवाद को स्वीकार करने के लिए मुझे किसी के प्रति भी कोई शंका नहीं है।"
यह सुनकर "भविष्य में यह कुमार्ग प्रचलित न हो जाय और मैं तो सत्य ही कह रहा हूं"-इस प्रकार का विचार करके नारद ने निःशंक रूप से वही प्रतिज्ञा स्वीकार कर ली। फिर एकान्त में पर्वतक की माता ने उससे कहा-“मैं घर के कार्यों में व्यस्त थी, फिर भी नारद के द्वारा कथित अर्थ ही मैंने तुम्हारे पिताश्री के मुख से श्रवण किया है। अतः तुमने