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________________ से होते हैं। विनय वैयावच्च या अनशन उपवासादि तप आदि भी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य के ही अंश है अतः उससे वीर्यान्तराय का क्षयोपशम आदि होता है स्पर्शेन्द्रिय को जीतने के साथ पांच इंद्रियों को जीतने से ब्रह्मस्वरूप प्रकट होता है अतः पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य पांचों इंद्रियों के पर विजय पाना है। वीर्य जैसे मैथुन सेवन से नष्ट होता है वैसे शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि विषयों में आसक्ति से, राग, द्वेष करने से,कषाय से, चिंता से,आदि अनेक दोषों से नाश होता है। काम की बाईस अवस्थाओं में, दश असंप्राप्त काम की एवं बारह संप्राप्त काम की है उस प्रत्येक से ब्रह्मचर्य का नाश होता है। उसक स्वरूप अन्य ग्रन्थों से जानकर ब्रह्मचर्य पालन करना अत्यावश्यक है। वीर्य का अपर नाम बीज भी है कारण कि वह सभी सुखों का मूल बीज है। शिवसंहिता में एक बिन्दुका पतन यानि मरण एवं बिन्दुकी रक्षा यानि जीवन' कहा है। वह वचन भी उसकी शक्ति का ज्ञापक है। सोलवें उतराध्ययन की १४वी गाथा में भी ब्रह्मचर्य को ध्रुव, नित्य, शाश्वत धर्म कहकर उसके बल से अनंत आत्मा सिद्धि को पाये, पाते हैं और पायेंगे कर कहा है। सभी धर्मों में ब्रह्मचर्य का महत्त्व विशेष रूप से गाया है। उसका यथार्थ स्वरूप तो ज्ञानी भी नहीं कह सकते। ___आगमों में अब्रह्म की दुष्टता का जो वर्णन किया है वह अर्थापतिसे ब्रह्मचर्य के महत्त्व को बताने के लिए है। अब्रह्म भयंकर, प्रमाद, दुराचार अधर्म का मूल एवं महा दोषों का घर है। उसके विरुद्ध ब्रह्मचर्य भद्रंकर, सदाचार, धर्म का मूल और सभी गुणों का निधान है। उसके बिना अहिंसादिशेष स्थानों का पालन शक्य नहीं है। अतः इसका महत्त्व सर्वाधिक है। इसकी रक्षा हेतु कही हुई नववाड़ को ब्रह्मचर्य जितना ही महत्त्व देकर पालन करने से ब्रह्मचर्य का रक्षण हो सकता है। नववाड़ों का अनादर करने वाले महायोगी का भी ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहा नहीं एवं सुरक्षित नहीं रह सकता। एकाशन तप नित्य-अप्रतिपाति इस कारण से है कि उससे अहित कुछ नहीं होता है और तप उपरांत दूसरे भी गुणों की वृद्धि होती है। इस प्रकार एकान्ते लाभ का व्यापार होने से नित्य है। तप कभी नुकशान नहीं करता। संयम में अनुकूलता रहे उस प्रकार शरीर की रक्षा पूर्वक एकबार भोजन करना। उसमें संतोष,लोलुपता का अभाव, रसना विजय, संयम वृद्धि आदि विशिष्ट गुणों का ध्येय होने से उपवासादि तपसे भी विशेष निर्जरा है। एकबार भोजन करना वह द्रव्य से और कर्मबन्धन हो वैसे राग-द्वेष तजकर लेना भाव से, एक श्रेष्ठ अद्वितीय अतः भाव से समझना। वह भी दिन को ही रागद्वेषादि दोष सेवन रहित, अन्यथा, द्रव्य से एकबार भोजन भी भाव से एक भक्त नहीं होगा। श्रामण्य नवनीत ५५
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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