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________________ छठा गुणस्थान. ( ७७) करणके विचार, वचनयोग- शब्दोच्चार, काययोग- शरीर संबन्धि व्यापार | पाँचवीं वेद मार्गणा-विकार के उदय भावको वेद कहते हैं । तत्वज्ञ पुरुषोंने वेद तीन फरमाये हैं, स्त्री वेद-विकारसे पुरुषकी इच्छा, पुरुष वेद - विकारोदयसे स्त्रीकी इच्छा, नपुंसक वेदमें विकारोदयसे स्त्री पुरुष दोनोंकी इच्छा होती है । छठी कषाय मार्गणा - जिससे संसारका कस आत्मप्रदेशों के साथ लिप्त होवे, उसे कषाय कहते हैं । कषायके क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार मूल भेद हैं और इनके सोलह उत्तर भेद होते हैं । सातवीं ज्ञान मार्गणा - जिससे पदार्थका बोध होता है उसे ज्ञान कहते हैं, उस ज्ञानके पाँच भेद होते हैं, मतिज्ञान-बुद्धि जन्य ज्ञान, श्रुतज्ञान - शास्त्र श्रवण जन्य ज्ञान, अवधिज्ञान, इन्द्रियोंकी सहायता बिना ही रूपी द्रव्योंको जनानेवाला ज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान - सर्व संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके मनोगत भावकों जनानेवाला ज्ञान, केवलज्ञान - सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें लोकालोक में स्थित रूपी अरूपी चर अचर सर्व पदार्थों सर्व भावोंको जनानेवाला अनुत्तर ज्ञान। ये पूर्वोक्त पाँच ज्ञान सम्यग्दृष्टी जीवको ही होते हैं। मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान तथा विभंग ज्ञान, ये मिथ्यादृष्टि जीवों को होते हैं । मनःपर्यत्र ज्ञान और केवल ज्ञान, सर्व विरतिवाले जिवोंको ही होते हैं, सर्व विरति और सम्यक्त्वके विना ये दो ज्ञान नहीं हो सकते, " इसलिये इनका विर्य भी नहीं होता। पूर्वोक्त पाँच ज्ञानोंमें मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान, ये दो ज्ञान परोक्ष हैं और अवधि ज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान तथा केवल ज्ञान, ये तीन ज्ञान अतीन्द्रिय होनेसे आत्माके .
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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