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________________ (७०) गुणस्थानक्रमारोह. क्षण करनेके वास्ते अनेक पापारंभि विचार करे, स्त्रीके रक्षणार्थ तथा अन्य किसी भी प्रिय वस्तुके रक्षणार्थ जो मनमें संकल्प विकल्प होते रहते हैं, उसे ही शास्त्रकारोंने संरक्षणानुबन्धि नामक रौद्र ध्यानका चौथा भेद कहा है । यह रौद्र ध्यान जीवोंको महा भयंकर संकट देनेवाला होता है । रौद्र ध्यानी जीवोंका हृदय सदा काल कलुषित रहता है । रौद्र ध्यानी परके सुख दुःखकी परवा न करके सदा काल अपने सुख प्राप्त करनेकी इच्छा किया करता है । अपने सुखके लिये उसे दूसरे जीवोंका वध करना तो एक गाजर मूलीके समान होता है । रौद्र ध्यानवाले जीवका परिणाम प्रायः सदा काल महाक्लिष्ट और क्रूर होता है । महाकर परिणाम होनेके कारण उसे सदैव वज्र लेपके समान घोर क्लिष्ट कर्मोंका बन्ध होता रहता है और उन धोर कर्मोंका विपाक उसे नरकादि नीच गतियोंमें जाकर भोगना पड़ता है । रौद्र ध्यानी को सदैव कुष्ण लेश्या होती है और कृष्ण लेश्या परिणामी जीव हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, ये पाँच अत्रत तथा मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय, और अशुभ योग, ये पाँच आश्रव, इस तरह इन दश पाप कर्मोंका सेवन करता है और उन काँका दारुण फल भोगते समय भी मनके अप्रशस्त विचार होनेसे आ. गेके लिए फिर वैसाकावैसा ही गाडंबन्ध करता है। बस इसी प्रकार अशुभ विचार जन्य कर्मोंके प्रभासे जीव संसार चक्रमें अनन्त काल पर्यन्त परिभ्रमण करता रहता है । इस प्रमत्त गुण स्थानमें पूर्वोक्त आतें ध्यानकी मुख्यता होती है और उपलक्षणसे पूर्वोक्त रौद्र ध्यानका भी अस्तित्व होता है क्योंकि प्रमत्त गुणस्थानमें हास्यादि नव नोकषायोंकी विद्यमानता होती है। इस गुणस्थानमें आज्ञादि आलंबनों सहित धर्म ध्यानकी
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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