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२.
प्रस्तावना.
अन्य कोई अरूपी चैतन्यादि गुणका धारक पदार्थ है, ऐसी मान्यतासे सर्वथा किनारे ही रहता है । ____ यह कर्मरूप उपाधि मुख्य आठ और गौण एकसो अड़तालीस या एकसो अठावन जातिकी खासीयत-प्रकृति द्वारा आत्माके अनंत ज्ञानादि गुणको आच्छादित करती है। उपाधिमें मिले हुए आत्माके गुणोंको विभिन्न करके दिखलाना जैसे दूध और पानी, मिट्टी और सुवर्णका दुःसाध्य होता है, वैसे ही यह भी दुःसाध्य है, जब तक दूध-पानी तथा मिट्टी-सुवर्णकी तरह आत्मा और कर्मका संयोग बना हुआ है तब तक इसे बद्धात्मा कहते हैं। और सुवर्ण मिट्टीके वियोग सदृश इसका भी कर्मसे वियोग हो जाता है, तब यह मुक्तात्मा कही जाती है। अनादिकालसे कर्मरूप उपाधिसे थिरि हुई भी आत्मा अष्टरूचक प्रदेशसे सदा सर्वदा अबद्ध ही रहती है । यूं तो आत्मा अनादिसे कर्माधीन होनेसे परतंत्र है, और इसी हेतुसे स्वगुणको विस्मृत करती हुई निरंतर पर परिणतिमें रमणता कर रही है। परगुणको स्वगुण माननेसे रूप रसादिकी स्पृहा निरंतर करती रहती है। अच्छे रूपादिको प्राप्त करके हर्षयुक्त होती है, और बुरे रूपादिके प्राप्त होनेसे खेदयुक्त होती है। इस प्रकार पराधीन होनेसे निरंतर उसी कर्मके कार्य करती हुई कर्मको ही पुष्ट करती है और अपनी पुष्टिकी ओर दृष्टि भी नहीं करती। आत्मा और कर्म दोनों ही अनंत शक्तिके धारक हैं, तथा स्वस्वरूपमें रमण करनेवाले हैं। अनादिकालसे दूध और पानी की तरह आत्मा और कर्म परस्पर ऐसे मिले हुए हैं कि आत्माका शुद्ध स्वरूप दिखलाई नहीं देता। कर्मने आत्माके अष्टरूचक प्रदेश छोड़कर सर्व प्रदेश ढक रखे हैं, तब भी आत्मा यदि कर्मका आच्छादन दूर करना चाहे तो कर सकती है, और अपने संपूर्ण गुणोंको प्राप्त करके कर्म प्रपंचको हटा सकती है। जितने जितने