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________________ छठा गुणस्थान. (६७) कितने एक साधु लोग भी आसकते हैं, कई साधुओंका शरीर कृश्य होता है, अतः उनके शरीरको कृश्य देख कर जब कोई उनसे पूछता है कि क्यों महाराज! आप तपश्चर्या करते हैं ? आपका शरीर बहुत सूख गया। उस वक्त वे महात्मा कह देते हैं हां भाई साधु तो सदा ही तपस्वी हैं न । तपस्वी न होने पर भी तपस्वी कहाकर खुश होनेवाले कपटी साधुको शास्त्रकार तपका चोर कहते हैं। शुद्धाचार न होने पर भी मलीन वस्त्र धारण करके शुद्धाचारी कहावे, इत्यादि धर्मकी ठगी करनेवाला साधु खराब गतिका भागी होता है। दशवैकालिक सूत्रमें फरमाया है कि तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अजेनरे, आयार भावतेणे अ, कुबइ देव किब्बिसे ॥१॥ अर्थ-तप, व्रत, रूप, आचार और भावनाका चोर साधु किलविषी देव होता है, अर्थात् देवताओंमें नीच जातीके देवपने पैदा होता है। दानकी चोरी करे, राजाने जिस वस्तु के लिए अपने राज्यमें मना किया हो, उस वस्तुको गुप्त रीतीसे लाकर वेचे और बेचकर मन ही मन खुशी होवे । इत्यादि चौर्यानुबन्धि रौद्र ध्यानके अनेक भेद होते हैं, किन्तु सारांश यही है कि मा. लिककी मरजी विना या उसे खबर किये विना जबरदस्तीसे उसकी वस्तु पर मालकीयत करलेनी या अपने उपभोगमें लेना और उससे आनन्द मनाना । बस इत्यादिको ही रौद्र ध्यानका चौर्यानुबन्धी तीसरा भेद कहते हैं। ____ अब रौद्र ध्यानका चौथा भेद कहते हैं, बदारंभपरिग्रहेषु नियंत रक्षार्थमभ्युद्यते । यत्संकल्पपरंपरा वितनुते प्राणीह रौद्राशयः ॥ य चालम्ब्य महत्व मुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते । तत्र्य प्रवदन्ति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ॥१॥ ज्ञानार्णव ।। अर्थ-जो क्रूर आशयवाला प्राणी बहुत सा आरंभ समारंभ परि
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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