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________________ wanrand (४८) गुणस्थानक्रमारोह. भिन्न ही है । आत्मा ज्ञानादि गुणोंका आविर्कर्ता और भोक्ता है। संसारमें जितने पौद्गलिक पदार्थ हैं, वे जगत्वासि अनेक जीवोंके भोगे हुए हैं, अतएव विश्वभरके तमाम पदार्थ उच्छिष्ट भोजनके समान हैं। उन पुद्गलोंको भोगोपभोग तया ग्रहण करनेका आस्माका धर्म नहीं। इस तरहसे जो अन्तःकरणमें चिन्तवन किया जाता है, उसे निश्चय नयसे सातवाँ व्रत समझना चाहिये।। - प्रयोजन विना पापकारी आरंभसे निवृत्त होना, इसे व्यवहार नयसे आठवाँ अनर्थडंड विरमण व्रत कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और मन-वचन-कायके योग, इन चारोंके उत्तर भेद सत्तावन होते हैं । आत्माको मलीन करनेवाले कर्मोका आगमन इन पूर्वोक्त हेतुओंसे ही होता है और कोंके जरीयेही आत्मा विभाव दशाको प्राप्त होती है, अतः पूर्वोक्त कर्म बन्धनके हेतुओंको त्यागना, इसे निश्चय नयसे अनर्थदंड वि. रमण नामक आठवाँ व्रत समझना। ____ आरंभ कार्यको छोड़कर जो सामायिक किया जाता है, उसे व्यवहारसे नववाँ व्रत कहते हैं। ज्ञानादि मुख्य सत्ता धर्मके द्वारा सर्व जीवोंको समान समझकर उन जीवोंपर समता परिणाम रखना, यह निश्चयसे नववाँ सामायिक व्रत समझना । नियमित स्थानमें स्थिति करना, यह व्यवहारसे दशवाँ व्रत कहाता है । श्रुतज्ञानके द्वारा छः द्रव्योंका स्वरूप समझकर पाँच द्रव्योमें त्याग बुद्धि रखकर ज्ञानमय आत्माका ध्यान करना, इसे निश्चयसे दशवाँ देशावकाशिक व्रत कहते हैं। ___ अहोरात्रि (रातदिन) सावध व्यापारका परित्याग करके खाध्याय ध्यानमें प्रवृत्त होना, यह व्यवहारसे ग्यारहवाँ व्रत समझना, ज्ञानध्यानादिके द्वारा आत्मीय गुणोंका पोषण करना,
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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