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________________ पाँचवाँ गुणस्थान. (२७) दो प्रकारसे होती है, एक तो संकल्पसे और दूसरे आरंभसे । संकल्प जन्य हिंसासे, याने मनमें ऐसा विचार हो कि इस जीवको मैं मारूँ, इत्यादि जो मनके संकल्पसे हिंसा होती है, उस हिंसासे गृहस्थ मुक्त हो सकता है, किन्तु आरंभ जन्य हिंसासे निवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि खेती वाड़ी वगैरह अनेक प्रकारके आरंभ समारंभवाले व्यापार उसे अपने स्वजन संबन्धि-कुटुंबियोंके लिये करने पड़ते हैं और उन व्यापारोंमें त्रसजीवोंकी भी हिंसा होती है । यदि गृहस्थावस्थामें रह कर व्यापार वगैरह न करे, तो कुटुंबका निर्वाह नहीं हो सकता, इस लिये वह आरंभवाला व्यापार भी उसे. करना ही पड़ता है । उस आरंभसे पाँच विश्वा दया उड़जाती है, अब उसके पास केवल पाँच विश्वा दया शेष रही। ___संकल्पसे त्रसजीवोंकी हिंसामें भी दो भेद हैं-सापराधि और निरापराधि । उसमें भी गृहस्थ निरापराधि जीवोंकी हिंसासे निवृत्त हो सकता है, परन्तु सापराधि जीवोंके लिये तो उसे विचार करना ही पड़ता है, अर्थात् सापराधि जीवोंके लिये उसे वध बन्धन करनेका भी संकल्प करना पड़ता है। इस तरह पाँच विश्वा दयामेंसे भी आधा भाग चला जाता है । अब केवल दाई विश्वा दया उसके पास रही। निरापराधि जीवकी हिंसामें भी दो भेद हैं-एक तो सापेक्ष और दूसरा निरपेक्ष । उसमेंसे गृहस्थ निरपेक्ष हिंसासे मुक्त हो सकता है, मगर सापेक्ष हिंसासे नहीं छूट सकता, क्योंकि निरापराधि घोड़े बैलादि भार वहन करने वाले जीवों तथा वैसे ही पठन पाठनमें या अन्य किसी भी कार्य करनेमें प्रमादी पुत्रादिकको सापेक्षपने ताड़ना तर्जना करता है, इस लिये ढाई विश्वा दयामेंसे आधा विभाग जानेपर उसके पास वही सवा विश्वा दया कायम रहती है । इस तरह गृहस्थ श्रावकको
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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