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________________ क्षपक श्रेणीका स्वरूप. क्षपकश्रेणीको आश्रय करनेवाला पुरुष आठ वर्षकी उमरसे अधिक उमरवाला, वज्रऋषभनाराच संघयणयुक्त, शुद्धध्यानी, अविरति, देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, संयतिमेसे चाहे कोई होवे मगर इतना विशेष समझना चाहिये कि जो अप्रमत्त गुणस्थानी संयति हो तो वह पूर्वधर होवे और शुक्लध्यानोपगत होवे । इसके अलावह अन्य धर्मध्यानोपगत होवे । इस प्रकारका जीव शुभयो गमें प्रवर्त्तता हुआ क्षपकश्रेणीको आदरता है। पढमकसायचउकं, इत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं । अविरयसम्म देसे, पमत्ति अपमत्ति खीयंति ॥ १॥ व्याख्या-पूर्वोक्त विशेषणों सहित जीव जब क्षपकश्रेणी प्रारंभ करता है तब वह प्रथम अनन्तानुवन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चार कषायोंको खपाता है, याने सत्तामें से नाश करता है । अनन्तानुबन्धि कषायोंके खपाये बाद तीन दर्शन मोहनीयको खपानेके लिए प्रयत्न करता है । यथाप्रवादिक जो तीन करण हम प्रथम लिख चुके हैं, उन तीनों करणोंको यथा क्रमसे यहाँ पर करता है । अपूर्वकरण करते समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही अनुदितमिथ्यात्व तथा मिश्रके जो दलिये चिर कालसे सत्तामें जमे हुवे थे, उन्हें अब उदयमें आये हुओंको सम्यक्त्व मोहनीयके बीचमें गुणसंक्रम तया संक्रमाता है और सतामें रहे हुवे सम्यक्त्व मोहनीय यथा मिश्र मोहनीयके दलोंको संक्रमाता है । प्रथम बड़ा स्थितिखंड उखेड़ता है, उससे दूसरा स्थितिखण्ड विशेष हीन उखेड़ता है और तीसरा उससे भी विशेष हीन उखेड़ता है। इस प्रकार स्थितिखंडोंको उखेड़ता
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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