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________________ चौदहवाँ गुणस्थान. (१८५) है । वेदनीय कर्मके क्षय होनेसे सिद्धोंको अनन्त सुख होता है । आत्मस्वभावमें रमणता रूप जो शास्त्रकारोंने वास्तविक सुख माना है, वह अनन्तसुख सिद्धावस्थामें प्राप्त होता है। अन्तराय कर्म नष्ट हो जानेसे सिद्धोंको अनन्त पराक्रमकी प्राप्ति होती है । ___ आयुकर्म क्षय होनेसे उन्हें अक्षय स्थिति प्राप्त होती है, नाम गोत्रके क्षय होनेसे सिद्ध परमात्माओंकी अरूपी अनन्त अवगाहना होती है ॥ अब सिद्धोंके सुखका वर्णन करते हैंयत्सौख्यं चक्रिशकादि-पदवीभोगसंभवम् । ततोनन्तगुणं तेषां, सिद्धावक्लेशमव्ययम् ॥१३३॥ श्लोकार्थ-जो सुख चक्रवर्ती तथा शक्रादि पदवीजन्य है उससे भी अनन्तगुणा तथा अक्लेश अव्यय सुख सिद्धोंको सिद्धिमें है। व्याख्या-संसारमें मनुष्योंके अन्दर चक्रवर्ती और देवताओंके अन्दर शक्रेन्द्रकी पदवीसे बढ़कर अन्य कोई सुख नहीं गिना जाता, अर्थात् संसारभरमें इन दोनों पदवीजन्य सुखको उत्कृष्ट सुख मानते हैं, परन्तु मोक्षमें सिद्धात्माओंको इससे भी अनन्तगुणा सुख होता है । वास्तविकमें तो सिद्धात्माओंके सुखकी उपमा संसारभरमें नहीं, क्योंकि संसारके जितने सुख हैं वे सब ही विनश्वर हैं और सिद्ध परमात्माओंका सुख अव्यय अक्षय अनन्त है, इस लिए संसारभरमें कोई भी ऐसा सुख नहीं कि जो सिद्धोंके सुखकी उपमा स्थान प्राप्त कर सके। सिद्धोंने जो प्राप्त किया है सो बताते हैंयदाराध्यं च यत्साध्यं, यध्येयं यच दुर्लभम् । चिदानन्दमयं तत्तैः, संप्राप्तं परमं पदम् ॥१३४||
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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