SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवाँ गुणस्थान. (१७९) और अग्नि आदिकी क्रमसे नीची, तिरछी और उर्ध्व गति होती है उसी तरह आत्माका भी उर्ध्व गमन करनेका स्वभाव है ॥ ___ व्याख्या-जिस प्रकार कुंभार बरतन बनानेके समय चक्र (चाक) को दंड विशेषके द्वारा प्रथम घुमाकर छोड़ देता है, उसके बाद उस पूर्वकृत प्रयोगसे स्वयमेव ही उसकी गति होती है, अथवा जैसे धनुषसे छूट कर बाण स्वयमेव ही गति करता है, धनुषसे छूटे बाद उसे गति करनेमें सिवा पूर्वप्रयोगके अन्य कुछ भी सहायक नहीं, जिस तरह इन वस्तुओंकी पूर्वकृत प्रयोगसे आगे स्वयमेव ही गति होती है वैसे ही अयोगि गुणस्थानके उपान्त्य समयमें जो शेप कर्म प्रकृतियोंको नष्ट करनेके लिए प्रयत्न किया था या उन कर्म प्रकृतियोंको नष्ट करने रूप जो प्रयोग विशेष किया गया था, उस प्रयोगसे सिद्ध भगवानकी उर्ध्व गति होती है। जिस तरह मिट्टीके लेप सहित कोई एक तुंबा पानीमें नीचे तह पर पड़ा हो और उसका लेप नष्ट होने पर पानीमें न ठहर कर जैसे वह शीघ्र ही जलके ऊपर आ उपस्थित होता है वैसे ही सिद्ध परमात्माकी आत्मा कर्मरूप लेपसे रहित होकर संसार रूप समुद्रमें न रहकर शीघ्र ही एक समय मात्र कालमें चतुर्दश राजलोकके ऊपर जाकर लोकान्त स्थानमें उपस्थित होती है। इसी तरह सण एरंड आदिके फल जब परिपक्क हो जाते हैं तब वे सूर्यका ताप लगनेसे स्वयमेव ही फट जाते हैं और उस वक्त एकाएक उन फलोंके फट जाने पर उनके अन्दर रहा हुआ बीज जिस प्रकार स्वयं ही ऊपरको गमन करता है, बस वैसे ही अयोगि गुणस्थानके अन्दर किये हुए शुक्लध्यान रूप तापसे सिद्ध परमात्माके कर्म बन्धन नष्ट होनेके कारण उसकी उर्ध्वगति होती है । अथवा ईंट, पाषाण, वायु और अग्नि आदि पदार्थोंकी जैसे
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy