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________________ तेरहवाँ गुणस्थान, , (१६९) . व्याख्या-योगी महात्माको जब तक केवल ज्ञानकी प्राप्ति न हो तब तक उसे छद्मस्थ योगी कहते हैं । उस छमस्थ योगीके मनको स्थिर करनेमें जिस प्रकार ध्यान कारण भूत होता है उसी प्रकार वह ध्यान केवली भगवानके कायचापल्यको स्थिर करनेमें कारण भूत होता है । शैलेशीकरण करनेवाला सूक्ष्म काययोगवान केवली जो करता है सो कहते हैं शैलेशीकरणारम्भी, वपुर्योगे स सूक्ष्मके । तिष्ठन्जास्पदं शीघ्रं, योगातीतं यियासति ॥१०॥ श्लोकार्थ-शैलेशीकरणको प्रारंभ करनेवाला योगी सूक्ष्म काययोगमें रहा हुआ योगातीत गुणस्थानमें शीघ्रतासे जानेकी इच्छा करता है । __व्याख्या -शैलेश नाम मेरु पर्वतका है अत एव मन वचन कार्यके व्यापारको नष्ट करके अपनी आत्माको मेरु पर्वतके समान निश्चल करनेको ही शैलेशी करण कहते हैं । अकारादि पाँच हस्वाक्षर उच्चारण मात्र काल आयुवाला ही केवली भगवान शैलेशीकरण करता है और उसी समय वह शुक्ल ध्यानके चतुर्थ पायेको ध्यानका विषय करता है, अत एव चतुर्थ शुक्ल ध्यान परिणतिरूप जो शैलेशीकरण है, उसे प्रारंभ करनेवाला सयोगी केवली प्रभु सूक्ष्म काययोगमें रहा हुआ योगातीत याने अयोगि गुणस्थानको शीघ्रतासे प्राप्त करनेकी इच्छा करता है। ___ अब सयोगि गुणस्थानके अन्त समय केवली प्रभु क्या करता है सो कहते हैंअस्यान्त्येऽङ्गोदयच्छेदात्, स्वप्रदेशघनत्वतः। करोत्यन्त्याङ्गसंस्थान-त्रिभागोनावगाहनम् ॥१०३॥
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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