SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६४) गुणस्थानकमारोह.. आयु और वेदनीयकर्मके कर्मपरमाणुओंको समान करके फिर आत्मप्रदेशोंको पीछे संहरता है। अर्थात् पूर्वोक्त विधिसे चार समय मात्र कालमें अपने आत्मप्रदेशोंसे समस्त राजलोकको स्पर्श करके फिर क्रमसे आत्मप्रदेशोंको अपने शरीरके अन्दर आकर्षित करता है, पहले चार समयोंमें सर्वलोकको आत्मप्रदेशोंसे पूरित किया था अब पाँचवें समयमें मंथानाकृतिके आँतरोंको पीछे संहरता है, छठे समयमें उत्तर दक्षिणके, जिससे मंथानकी आकृति बनी थी, उन आत्मप्रदेशोंका संहरण करता है । सातवे समयमें पूर्वापर दिशाओंके, जिससे कपाटकी आकृति बनी थी, उन आत्मप्रदेशोंका संहरण करता है। आठवें समयमें दण्डाकार आत्मप्रदेशोंका उपसंहार करता है, आठवें समयमें अपने तमाम आत्मप्रदेशको आकर्षित करके केवली भगवान स्वभावस्थ होजाता है । महोपाध्याय श्रीमान् यशोविजयजी महाराजने भी फरमाया है कि-दण्डं प्रथमे समये, कपाटमथचोत्तरे तथा समये, मन्थानमथतृतीये, लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ १॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथपुनः षष्ठे । सप्तमके कपाटं, संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ २॥ केवली प्रभु समुद्घात करता हुआ जिस प्रकार योगवान् और आहारक होता है अब सो बताते हैंसमुद्घातस्य तस्माद्ये, चाष्टमे समये मुनिः। औदारिकाङ्गयोगः स्यात्, द्विषट् सप्तमकेषु तु ॥९२॥ मिश्रौदारिकयोगी च, तृतीयाद्येषु तु त्रिषु । समयष्वेककाङ्ग-धरोनाहारकश्च सः॥ ९३ ॥ । युग्मम् ॥
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy