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________________ (११०) गुणस्थानक्रमारोह. धारण करने वाला महा मुनीश्वर उपशम तथा क्षपण करनेके सन्मुख होकर मोहनीय कर्मकी पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंको उपशाम्त करनेके लिए अथवा क्षय करनेके लिए सद्ध्यानका प्रारंभ करता है। ___ व्याख्या-पाँच प्रकारके प्रमादसे मुक्त-सर्वथा अप्रमत्त दशामें रहने वाला, महाव्रतों तथा अष्टादश सहस्त्र शीलांगके लक्षणोंसे युक्त, सर्वज्ञ देव प्रणीत छः द्रव्योंका गुण पर्यायात्मक यथातथ्य ज्ञान, चारों ओरसे मनो व्यापारका निरोध करके मनकी एकाग्रता-आत्म स्वरूपमें तल्लीनता और मौन व्रतको धारण करने वाला मुनीश्वर कमें प्रकृतियोंको उपशम तथा क्षय करनेमें उद्यत होकर सात कर्म प्रकृतियों के अतिरिक्त मोहनीय कर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंको उपशान्त करनेके लिए या क्षय करनेके लिए ही निरालंब सद्ध्यानमें प्रवेश करता है। निरालंबन सद्ध्यानके प्रवेशमें योगीश्वर तीन प्रकारके होते हैं, एक तो प्रारंभक, दूसरे तनिष्ठ और तीसरे निष्पन्नयोग । जो मनुष्य नैसर्गिक या सांसर्गिक विरति (व्रत नियम वाली आत्मपरिणति) को प्राप्त करके बंदरके समान चपल मनको निरुद्ध करनेके लिए किसी पर्वतकी गुफा वगैरह एकान्त स्थानमें बैठकर तथा निरन्तर नासिकाके अग्रभाग पर दृष्टि लगाकर निष्पकंप तया वीर आसनसे विधि पूर्वक समाधिका प्रारंभ करता है, उसे प्रारंभक योगी कहते हैं । जो मनुष्य प्राण वायु, आसन, इन्द्रिय, मन, क्षुधा, पिपासा, तथा निद्रा, इन सवोंको अपने वशमें करके सर्व प्राणी मात्र पर प्रमोद भावना, कारुण्य भावना तथा मैत्री भावनाको धारण करके अन्तर्जल्पपने ध्यानाधिष्टित चेष्टासे तत्व स्वरूपका चिन्तवन करते हैं उन्हें तनिष्ठयोगी कहते हैं । जिन योगियोंके हृद
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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