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________________ छठा गुणस्थान. (१०३) कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमत्त गुणस्थानमें आज्ञादि अवलंबनों सहित मध्यम धर्मध्यानकी भी गौणता होती है, किन्तु मुख्यता नहीं, अतएव इस प्रमत्त गुणस्थानमें निरालंबन उत्कृष्ट धर्म ध्यानकी प्राप्तिका असंभव ही है। जो मनुष्य पूर्वोक्त सिदान्तिक वचन पर ध्यान न दे कर प्रमत्तावस्थामें भी क्रिया कांडका परित्याग करके निरालंबन धर्म ध्यानकी डींग मारते हैं, उन्होंके प्रति शास्त्रकार फरमाते हैंप्रमाद्यावश्यकत्यागा निश्वलं यानमाश्रयेत् । यो सौ नैवागमं जैनं वेत्ति मिध्यात्वमोहितः॥३०॥ - श्लोकार्थ-जो प्रमादी आवश्यकके त्यागसे निश्चल निरालंबन ध्यानको आश्रय करता है, वह मिथ्यात्वसे विमूढ होकर. जैनागमको नहीं जानता। व्याख्या-जो प्रमादी मुनि, प्रमत्त अवस्थामें रहकर भी सामायिकादि षड़ावश्यक साधक अनुष्ठानको त्यागकर निश्चल निरालंबन ध्यान करता है, वह मुनि मिथ्यात्व भावसे विमूढ होकर जिनेश्वर देवके कथन किये हुए सिद्धान्तके रहस्यको नहीं जानता, अर्थात् वह साधु जैनागमके ममसे बिलकुल ही अनभिज्ञ है, अभी तक उसका हृदय मिथ्यात्वसे वासित है । क्योंकि जैन सिद्धान्तको जाननेवाले ज्ञानी पुरुषोंने व्यवहार पूर्वक ही निश्चयको साध्य फरमाया है । परन्तु पूर्वोक्त प्रमादी मुनि तो व्यवहारको त्यागकर निश्चयको भी नहीं प्राप्त कर सकता, अतः वह दोनोंसे ही जाता है । सिद्धान्तमें फरमाया है कि-जह जिणमयं पवज्जइ तामा ववहार निच्छएमुअह । ववहार न उच्छेए तित्थुच्छे ओ जओ भणिओ ॥१॥ अर्थ-जो मनुष्य जैन मतको अंगी
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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