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________________ छठा गुणस्थान. (९१) भोग लिया जाय, तो वह कर्म उतनेसे ही खतम हो जाता है और यदि विसंभावसे भोगा जाय याने हाय तोबा मचाकर भोगे, तो उससे भी पूर्वकी तरह भविष्यकालमें कटु फल चखानेवाला अंकूर फूट निकलता है, क्यों कि विसंभावसे कषायोंका सद्भाव हो जाता है और कषायोंके उदयसे अवश्य ही कटु फल प्रदायक बन्ध होता है । बस इसी प्रकार शुभाशुभ कर्मरूप लता बढ़ती रहती है, इसी तरह अनादि कालसे जीवने अनन्त भवों में अनन्त दुःख और मनकल्पित सुख भोगा है, परन्तु आज तक इस जीवकी दुखों तथा मनकल्पित सुखोंसे तृप्ति नहीं हुई। जिस तरह संसारमें दिनके अभावसे रात्रि और रात्रिके अभावसे दिन होता है, वैसे ही आत्माके साथ जो कर्म वर्गणाके पुद्गल लगे हुए हैं, उनमेंसे जब कुछ अशुभ कर्मोंका अभाव होता है तब शुभ कर्मोंकी वृद्धि और जब शुभ काँका अभाव होता है तब अशुभ कर्मोंकी वृद्धि होती है । इस प्रकार शुभाशुभ कर्मबन्धकी परंपरा कायम रहनेसे जीव संसारसे मुक्त नहीं हो सकता, क्यों कि आत्माके साथ शुभाशुभ दोनों ही प्रकारके कर्मोंका वियोग होनेसे आत्माका शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है, अर्थात् शुभाशुभ दोनों ही प्रका• रके कर्मोंका अभाव होनेसे आत्मा संसारसे मुक्त हो सकती है अन्यथा नहीं। संसारमें अमूल्य चिन्तामणि रत्नसे भी बढ़कर मनुष्य जन्मको प्राप्त करके मनुष्योंको बड़ी गंभीर वृत्तिसे अपने जीवनको व्यतीत करना चाहिये । तुच्छ स्वभाववाले मनुष्य दूसरोंकी हँसी मजाक कुतूहल वगैरह करके उनके दिलको दुखा कर अनेक प्रकारके कटुफल देनेवाले कर्म बाँध लेते हैं और उन कर्मों के प्रभावसे भवान्तरमें अनेक सुखप्रद वस्तुओंकी हानी प्राप्त करते हैं।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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