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________________ (८४) गुणस्थानक्रमारोह. कर्मके वश हुवे जीवोंको देख कर अच्छे के ऊपर राग तथा बुरेके ऊपर द्वेष न करके सदा काल मध्यस्थ भावमें रहना चाहिये, क्योंकि संसारमें समस्त प्राणियोंका जैसा जैसा कर्म बन्धोदय होता है उन्हें वैसी वैसी ही संयोग वियोगादिकी सामग्री प्राप्त होती है । जिस तरह धान्य या अन्य किसी बीज विशेषके अन्दर अंकूर प्राप्त करनेकी शक्ति या स्वभाव होता है, वैसे ही पूर्वोक्त बन्धनों सहित जीवात्मामें पुनर्जन्म धारण करनेका स्वभाव है। जैसे बीजको आगमें भस्म कर देनेसे या उसका नकवा छेदन कर देने पर उसके अन्दरसे अंकूर शक्ति या अंकूर देनेका स्वभाव नष्ट हो जाता है, वैसे ही पूर्वोक्त चार प्रकारके बन्धनरूप बीजको ध्यानरूप अग्निसे भस्मावशेष कर देनेसे जीवात्माका पुनर्जन्म धारण करनेका स्वभाव नष्ट हो जाता है। फिर उसे अजरामरकी प्राप्ति हो जाती है। पूर्वोक्त बन्धनोंके प्रभावसे ही जीव चतुर्गतिरूप संसारमें ऊंच नीच गतियोंमें अनेक प्रकारकी दशाओंको धारण करता है। जब पूर्वोक्त बन्धनासे जीव सर्वथा मुक्त हो जाता है तब वह निर्लेप होकर तथा उर्ध्व गमन करके चतुर्दश राजलोकके अन्त भागमें जहाँ पर सिद्धात्मा रहते हैं वहाँपर परमात्म रूप तया जा विराजता है । जिस तरह मिट्टी आदिके भार सहित कोई एक तूंबा पानीमें दवा हुआ हो और किसी प्रयत्नसे उसका वह भार दूर किया जाय तब उस तूंवेकी जैसे उर्ध्व गमन करनेकी शक्ति प्रगट हो जाती है, यद्यपि वह उर्व गमनकी शक्ति प्रथम भी उस तूंबेके अन्दर ही थी, किन्तु उसके साथ जो भार लगा हुआ था उसने उस शक्तिको दवाया हुआ था, अतः अब उस भारके दूर होनेसे उस शक्तिका प्रादुर्भाव हो गया। बस वैसे ही आत्माका स्वभाव भी उर्ध्व गति करनेका है,
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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