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________________ (८२) गुणस्थानक्रमारोह. दुःखोंका अनुभव करते हैं। जीवोंकी ऐसी दुर्दशा देख कर जिस मनुष्यके हृदयमें दयासंचार होता है बस वही मनुष्य धर्मके योग्य हो सकता है । कर्मबन्धन छूटनेसे जीवको मोक्षपदकी प्राप्ति होती है, इस लिए ध्यानी मनुष्यको बन्धका स्वरूप समझना चाहिये । बन्ध चार प्रकारका होता है-पयइ, ठिइ, रस, पएसा । अर्थात् प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, रस बन्ध ( अनुभाग बन्ध ) और प्रदेश बन्ध। इन चार प्रकारके बन्धोंका स्वरूप बड़ा गहन और विस्तारवाला है तथापि संक्षेपसे समझनेके लिए यहाँ पर एक दृष्टान्त द्वारा लिखते हैं। प्रकृति बन्ध-स्वभावको प्रकृति कहते हैं, जिस तरह मुंठ वगैरह पदार्थ डाल कर एक लड्डू बनाया हो, उस लड़में जैसे वायु रोग दूर करनेका स्वभाव होता है, उसी प्रकार आत्म गुण ज्ञानको आच्छादित करनेका ज्ञानावरणीय कर्मका स्वभाव है । दर्शनावरणीय कर्मका स्वभाव दर्शन गुणको दवानेका है। वेदनीय कर्मका स्वभाव निराबाध सुखकी हानी करनेका है । सम्यक्त्व तथा चारित्रको रुकावट करनेका स्वभाव मोहनीय कर्मका है । आयु कर्मका स्वभाव अजरामर पद प्राप्तिकी हानी करनेका है। नाम कर्मका स्वभाव अरूपी पद प्राप्तिकी हानी करनेका है । गोत्र कर्मका स्वभाव अगुरु लघु पद याने संपूर्ण सुलक्षण पदकी हानी करनेका है । आत्माकी अनन्न शक्तिको आच्छादित करनेका स्वभाव अन्तराय कर्मका है। पूर्वोक्त कमाके अन्दर पूर्वोक्त गुणों को जो दवा लेनेका स्वभाव है, उसे ही प्रकृति बन्ध कहते हैं । जिस तरह पूर्वोक्त लडकी काल स्थिति एक मास या एक पक्षकी होती है, अतएव वह लड्डू उस एक मास या एक पक्षकी स्थितिसे अधिक समय हो जानेपर स्वाद रहित हो जाता है ।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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