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हवइ कम्मुणा॥९॥एए पाउक्करे बुद्धे ( पाउकरा धम्मा), जेहिं होइ सिणायसव्वकम्मविणिमुक्कं , तं वयं बूम माहणं॥९८०॥ एवंगुणसमाउत्ता, जे हवंति दिउत्तमाते समत्था उ उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य॥१॥एवं तु संसए छिन्ने, विजयघोसे य बंभ( माह )। समुदाया (संजाणं) तओ तं तु, जयघोसं महामुणिं॥२॥ तुढे य विजयघोसे, इणमुद्दाहु कयंजली। माहणत्तं जहाभूयं, सुठु मे उवदंसियं ॥३॥ तुब्भे जइया जनाणं, तुब्भे वेयविदो विऊो जोइसंगविऊ तुब्भे, तुब्भे धम्माण पारगा॥४॥ तुब्भे समत्था उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव यो तथणुग्गहं रेहऽहं , भिक्खू (क्खे )णं भिक्खुउत्तमा॥५॥ न कर्ज मज्झ भिक्खेणं, खियं निक्खभसू दिया! मा भमिहिसि भयावत्ते, धोरे (भवावत्ते, दीहे ) संसारसागरे॥६॥ उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ। भोगी भभइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई॥७॥ उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽत्थ लागई॥८॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा विरत्ता उन लग्गति, जहा से सुक्कगोलए॥९॥ एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अंतिए। अणगारस्स निक्खंतो, धम्म सु( सो)च्चा अणुत्तरं (ण केवलं)॥९९०॥खवित्ता पुवकमाई, संजमेण तवेण योजयघोसविजयधोसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥९९१॥ ति बेमि, जन्नइज २५॥
सामायारि पवक्खामि, सव्वदुक्खा विमुक्खणि जं चरित्ताण निगंथा( क्खंता), तिण्णा संसारसागरं ॥२॥ पढमा आवस्सिया नाम, बिइया य णिसीहिया। आपुच्छणा य तइया, चउत्थी पडिपुच्छणा॥३॥ पंचमा छंदणा नाम, इच्छाकारो अ छट्ठओ। सत्तमो ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं ॥
पू. सागरजी म. संशोधित
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