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|अणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिंदइ बंधणं से॥७॥ आउत्तया जस्स य नत्यि कावि, इरियाइ भासाइ तहेसणाए।
आयाणनिक्खेवदुगुंछणाए, न वीरजायं अणुजाइ मग ८॥ चिरंपि से मुंडरुई भवित्ता, अथिरव्वए तवनियमेहिं भट्ठोचिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए॥९॥ पुल्लेव( पोल्लार )मुट्ठी जह से असारे, अयंतिते कूडकहावणे यो रातामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्धए होइ हु जाणएसु॥७४०॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता। असंजए संजय विणिघायमागच्छइ से चिरंपि॥१॥ विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीओ एमेव धम्मो विसओववत्रो, हणाइ वेयाल इवाविवत्रो( बंधणो)॥२॥ जो लक्खणं सुविण पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तंमि काले॥३॥ तभंतमेणेव 3 से असीले, सया दुही विप्परियासुवेइ। संधावई नगतिरिक्खजोणी, मोणं विराहित्तु असाहरूवे॥४॥ उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुच्चई किंचि अणेसणिज्जी अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कटु पावनतं अरी कंठ छित्ता रेइ, जंसे करे अप्पणिया दुरप्यासे नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणा॥६॥ नित्थया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमढे विवयासमेइ। इमेवि से नत्थि परेवि लोए, दुहओऽवि से झिझइ तत्थ लोए॥७॥ एमेवऽहाछंदकुसीलरूवे, मागं विराहित्तु जिणुत्तमाणी कुरीविवा भोगरसाणुगिद्धा, निरटुसोया परितावमेइ ॥८॥ सुच्चाण मेहावि सुभासियं इमं, अणुसासणं नाणगुणोववेयी मगं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियंठाण वए पहेणं॥९॥ चरित्तमायारगुणनिए तओ, ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ।।
पू. सागरजी म. संशोधित
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