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| पुरिसकहासंगवज्जिया ॥१४०॥ पुरिससंलावविरयाओ, पुरिसंगोवंगनिरिक्खणा। निम्ममत्ताउ ससरीरे, अप्पडिबद्धाउ महायसा ॥१॥ भीया थीगम्भवसहीणं, बहुदुक्खाउ भवसंसरणओ तहा। ता एरिसेणं भावेणं, दायव्वा आलोयणा ॥ २ ॥ पायच्छित्तंपि कायव्वं, तह जह एयाहिं समणीहिं कथं । ण उणं तह आलोएयव्वं, मायादंभेण केगई ॥ ३ ॥ जह आलोयमाणीणं, पावकम्मवुड्ढी | भवे । अणंताणाइकालेणं, मायादंभछम्मदोसेणं ॥४॥ कवडालोयणं काउं, समणीओ ससल्लाओ। आभिओगपरंपरेणं, छडियं पुढविं गया ॥ ५ ॥ कासिंचि गोयमा ! नामे, साहिमो तं निबोधय । जाउ आलोयमाणीओ, भावदोसेण सुतरगं पावकम्ममलखवलियं ॥६॥ तह संजमसीलंगाणं, णीसल्लतं पसंसियां तं परमभावविसोहीए, विणा खणर्द्धपि नो भवे ॥७॥ | तो गोयमा ! के सिमित्थीणं, चित्तविसोही सुनिम्मला। भवंतरेवि नो होही, जेण नीसल्लया भवे ॥८ ॥ छट्टट्टमद समदुवालसेहिं सुक्खंति | केवि समणीओ | तहवि य सरागभावं, णालोयंती ण छड्डति ॥९ ॥ बहुविहविकप्पकल्लोलमालाक्वलिगाहिणं । वियरंतं तेण लक्खेजा, दुरवगाहमण (भव ) सागरं ॥ १५० ॥ ते कहमालोयणं देंतु, जासि चित्तंपि नो वसे? | सल्लज्जा ताणमुद्धरए, स वंदणी ओ खणे खणे ॥१॥ असिणेहपीइपुवेण, धम्मज्झाणुल्लसावियं। सीलंगगुणद्वाणेसु, उत्तमेसुं धरेइ जो ॥ २ ॥ इत्थी बहु बंधणा विमुक्कं, | गिहकलत्तादिचारगा । सुविसुद्धसुनिम्मलं चित्तं णीसल्लं सो महायसो ॥ ३ ॥ दट्ठव्वो वंदणीओ य, देविंदाणं स उत्तमो दीण( कय )त्थी सव्व परिभूय, विरइद्वाणे जो उत्तमे धरे ॥४॥ णालोएमि अहं समणी, दे कहं किंचि साहुणी । बहुदोसं न ॥ श्री महानिशीथसूत्रं ॥
पू. सागरजी म. संशोधित
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