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। कहिंमि, कत्थइ छेयणभेयणी बंधणं लंधणं कहिंमि, कत्थइ दमणमंकणं॥२॥ णत्थणं वाहणं कहिंमि, कत्थइ वहणताला
गुरुभारक्कमणं कहिंचि, कत्थइ जमलारविंधण॥३॥ उरपट्टिअविकडिभंग, प्रवसो तण्हं छुहं। संतावुव्वेगदारिद, विसहीहामि पुणोविहं ॥४॥ता इहइंचेवसव्वंपि, नियदुच्चरियं जहट्ठियं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्ता, पायच्छित्तं चरितुणं॥५॥ निहामिपावयं कम्म,झत्ति संसारदुक्ख्या अब्भुद्वित्ता तवंधोरं, धीरवीरपरक्कम ॥अच्चंतकडयडं कठें, दुक्करं दुरणुच्चर। उगुग्गया जिणाभिहियं सयलकलाणकारणं॥७॥ पायच्छित्तनिमित्तेणं, पारसंथारकारय। आयरेणं तवं चरिमो, जेणुब्भं सोक्खई तणुं॥८॥ कसाए विहलीकटुं, इंदिए पंच निग्गह। मणोवईकायदंडाणं, निग्गहं धणियमारभे॥९॥ आसवदारे निरंभेत्ता, चत्तमयमच्छरअभरिसो। गयरागदोसमोहोऽहं, नीसंगो निप्परिगहो॥४०॥निम्भमो निरहंकारो, सरीरअच्चंतनिपिहोमहव्व्याई पालेमि, निरइयाराई निच्छिओ॥१॥ हद्धी थी हा अहन्नोऽहं, पावो पावमती अहं पाविट्ठी पावकम्मोऽहं पावाहमाहमयरोऽहं ॥२॥ कुसीलो भट्ठचारित्ती, भिल्लसूणोवमो अहं। चिलातो निक्किवो पावी, कूरकम्भीह निग्घिणो ॥३॥ इणमो दुल्लभं लभि, सामन्नं नाणदंसणी चारित्तं वा विराहेत्ता, अणालोइयनिंदियागरहियअक्यपच्छित्तो, वावजतो जई अहं॥४॥ ता निच्छयं अणुत्तरे, घोरे संसारसागरे। निबुड्डो भवकोडीहिं, समुत्तरंतोण वा पुणो॥५॥ता जा जराण पीडेइ, वाही जाव न केई मे। जाविंदिया न हायंति, ताव धमे चरेत्तुऽहं ॥६॥ निद्दहमइरेण पावाई, निंदिउं गरहिउँ चिरं। पायच्छित्तं चरित्ताणं, निक्कलंको भवामिऽहं ॥७॥ निकलुसनिक्कलंकाणं, सुद्धभावाण गोयमा!। तत्रो || श्री महानिशीथसूत्र ॥
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पू. सागरजी म. संशोधित
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