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गणी भविंसु, एएणं अद्वेणं, से भयवं! किण्णं सव्वेऽवी एवंविहे तक्कालं गणी भवीसुं?, गोयमा ! एगंतेणं नो, सव्वे, केई पुण दुरंतपंतलक्खणे अदट्ठव्वे एगाए जणणीए जमगसमगं पसूए निम्मेरे पावसीले दुज्जायजम्मे सुरोद्दपयंडाभिग्गहियदूर महामिच्छद्दिट्ठी भविंसु, से भयवं! कहं ते समुवलक्खेज्जा ?, गोयमा ! उस्सुत्तउम्मग्गपवत्तणुद्दिसणअणुमइपच्चएण । १५ । से भयवं ! जे णं गणी किंचियावस्सगं पमाएज्जा ?, गोयमा ! जे गं गणी अकारणिगे किंची खणमेगमवि पमाए से णं अवंदे उवइसेज्जा, जे गं तु | सुमहाकारणिगेवि संते गणी खणमेगमवी ण किंचि णिययावस्सगं पमाए से णं वंदे पूए दट्ठव्वे जाव णं सिद्धे बुद्धे पारगए खीणटुकम्ममले नीरए उवइसेज्जा, सेसं तु महया पबंधेणं सत्थाणे चेव भाणिहिइ १६ । 'एवं पच्छित्तविहिं सोऊण णाणुचिट्ठती। अदीणमणो, जुंजइ य जहथामं, जे से आराहगे भणिए ॥ २० ॥ जलजलणदुट्ठसावयचोरनरिंदा हिजोगिणीण भए । तह भूयजक्खरक्खसखुद्द पिसायाण मारीणं ॥ २१ ॥ कलिकलह विग्घरोहगकंताराडइसमुद्दमज्झे यो दुच्चितिय अवसउणे संभरियव्वा वट्टइ इमा विज्जा ॥ २२ ॥ असएइजण आम्देण्उज् अन्णज्झाणइ उम्म्एद्भूतइवइ कमउण् आहइएहु इमपव्वाण आग उइह अण्हउचउइहभूमहमुअण्उम्वइदएउ आण अम्चउण्हम्इम्सुखक् अल् अम्घएह इस अम्चउ ( प्रत्यंतरे प्आएहइंजन् अम्इन् उज्म्न्झन् उम्म्एहइम्त्इव्इक्कम् उ नू आहइएहइम् पव्वान् आग् ओह्रइअरपहरउच्उदुइम्महसउ उ अणउमथइट्एओ अन् अमृत एहमइम्वधसइखक अउल्अमथएहवइ सम् अमृतउ ) एयाए पवरविज्जाए विहीए अत्ताणगं समहिमंतिऊणं इमेए सत्तक्खरे उत्तमंगो भयखंधकुच्छी चलणतलेसु ॥ श्री महानिशीथसूत्रं ॥ पू. सागरजी म. संशोधित
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