________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समल्लिए॥७॥ वासलक्खंपि सूलीए, संभित्रो अच्छिया सुहं। अगीयत्थेण सभं एवं, खणपि न संवसे॥८॥ विणावि तंतमंतेहिं, घोरदिट्ठीविसं अहिं। डसंतंपि समलीय, णागीयत्थं कुसीलाहम॥९॥ विसं खाएज्ज हलाहलं, तं किर मारेइ तक्खणी ण करेऽगीयत्थसंसगि, विढवे लक्वंपिजं तहिं ॥१५०॥ सीहं वग्घं पिसायं वा, घोररूवभयंकर। ओगिलमाणंपि लीएज्जा, ण कुसीलमगीयत्थं तहा॥१॥ सत्तजम्मंतरं सत्तुं, अवि मत्रिजा सहोयरंग व्यनियम जो विराहेजा, जणयं पिक्खे तयं रि॥२॥ पविट्ठो जलियं हुयासणं, न यावि नियमं सुहुमं विराहियो वरं हि मच्चू सुविसुद्धकम्मुणो, न यावि नियम भंतूण जीवियं ॥३॥ अगीयत्थत्तदोसेण, गोयमा! ईसरेण उजं पत्तं तं निसामेत्ता, लहु गीयत्थो मुणी भवे॥४॥से भयवं! णो वियाणेऽहं, ईसरो कोवि मुणिवरो। किं वा अगीयत्थदोसेणं, पत्तं तेण? कहेहि गो॥५॥ चवीसिगाए अनाए, एत्थ भरहंभि गोयमा!। पढमे तित्थकरे जइया, विहीपुव्वेण निव्वुडे ॥६॥ तइया निव्वाणमहिमाए, कंतरूवे सुरासुरे। निवयंते उप्पयंते व, दलै पच्चंतवासि ॥७॥ अहो अच्छेरयं अज, मच्चलोयंभी पेच्छिभो। ण इंदजाल सुमिणं वावि दिटुं कत्थई पुणो॥८॥ एवं वीहापोहाए, पुद्धि जाई सरित्तु सो। मोहं गंतूण खणमेहं, मारुयाऽऽसासिओ पुणो॥९॥ थरथरथरस्स कंपंतो, निंदिउँ गहिउँ चिरं। अत्ताणं गोयमा! धणियं, सामनं गहिउमुजओ॥१६०॥ अह पंचमुट्ठियं लोयं, जावाढवइ महायसो। सविणयं देवया तस्स, रयहरणं ताव ढोयई॥१॥ उग्गं कहें त्वच्चरणं, तस्स दठूण ईसरो।लोओ पूयं रेमाणो, जाव 3 गंतूण पुच्छई॥२॥ केण तं दिक्खिओ? कत्थ?, उम्पत्रो को कुलो ॥ श्री महानिशीथसूत्र ॥
१४४
पू. सागरजी म. संशोधित
For Private And Personal Use Only