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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ११६ ॥ ॥ ११७ ॥ ॥ ११८ ॥ ॥११९ ॥ ॥१२० ॥ ॥ १२१ ॥ किं न भवे आहारग-दुगंपिई आह अयमभिप्पाओ। अपमत्तो वि पमत्तो होई आहारआरंभे निट्ठवणे वि य लद्धीउवजीवणया इहं इमे वि मया। पुव्विल्लनवाहारगदुगसहियेगारस पमत्ते जोगिम्मि सत्त सच्चं असच्चमोसं मणं तहा वयणं । उरलदुगं काओगो एक्कंतिमगं अजोगं ति जे पुण विरयाविरय-प्पभिईण वि केइ बिति वेउव्वं । तह आहारगपारंभ-कालपरओ वि साहुस्स अपमत्तत्तं पि भणंति ते उ एवं पढंति इय गाहा । तेरस चउसु दसेगे इच्चाई तत्थ अयमत्थो पुव्विल्लमए मिच्छे सासे सम्मे य जोग तेरसगं । इह इंतु पमत्ते विय तेरसगं तत्थ जे पुव्वा एक्कारस ते सहिया वेउव्विदुगेण तेरस हवंति। देसविरयाइयाणवि एत्थ मए होइ वेउव्वं मीसे दस ते चेव य तह पणसगमाइबारसंतेसु । जे पुव्वं सत्तसु नव भणिया ते चेव इहइंपि देसजयमप्पमत्तं मोत्तुं सेसेसु पंचसु गुणेसु । नव हुंति तहा दोसु एक्कारस तत्थ देसगुणे वेउव्वियदुगजुत्ता पुव्विल्ला नव हवंति एक्कारा । अपमत्तसंजयस्स उ ते नव साहारवेउव्वा हुंतिकारसजोगा भावत्थोयं विउव्वमाहारं । कुव्वंतो आरंभे ऊसुगचित्तो हवइ जीवो तत्तो होइ पमत्तो इय अपमत्ते विउव्विसंमीसं। आहारमीसयं पि य न होइ तस्स उ समत्तीए ।। १२२ ॥ ॥ १२३॥ ॥१२४ ।। ॥ १२५ ।। ।। १२६ ॥ ॥ १२७ ॥ 3४ For Private And Personal Use Only
SR No.020964
Book TitleShastra Sandeshmala Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2009
Total Pages430
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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