________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ ८० ॥
॥ ८३॥
॥८४ ॥
एवं पनरससण्णिम्मि हुन्ति तं तं भवं अपत्तस्स । कम्मणुभवन्तराले अह उवओगाइया गाहा सुगमेवेत्तो उ गुणे मिच्छागाहा उ आह सा सुगमा । नवरं किञ्चि सरूवं गाहाहि इमाहि पभणामि
।। ८१ ॥ जीवाइपयत्थेसुं जिणोवइटेसु जा असद्दहणा। सद्दहणा चिय मिच्छा विवरीयपरूवणा जा य
॥ ८२ ॥ संसयकरणं जं पिय जो तेसु अणायरो पयत्थेसु । तं पञ्चविहं मिच्छं तद्दिट्ठी मिच्छदिट्ठी य उवसमअद्धाए ठिउ मिच्छमपत्तो तमेव गन्तु मणो । सम्मं आसायन्तो सासायणमो मुणेयव्वो . जह गुडदहीणि विसमाणि भावरहियाणि होन्ति मिस्साणि । भुंजंतस्स तहोभय तद्दिट्ठी मीसदिट्ठी य
॥ ८५ ॥ तिविहे वि हु सम्मत्ते थेवावि न विरइ जस्स कम्मवसा। सो अविरउ त्ति भण्णइ देसो पुण देसविरईए ॥ ८६ ॥ विगहाकसायनिद्दासघाइरओ भवे पमत्तो त्ति । पञ्चसमिओ तिगुत्तो अपमत्तजई मुणेयव्वो एवमपुव्वमपुव्वं जहुत्तरं जो करेइ ठीखण्डं । रसखण्डं तग्घायं सो होइ अपुव्वकरणो त्ति विणिवट्टन्ति विसुद्धि समयपइट्ठा वि जस्स अण्णोण्णं । तत्तो नियट्टिठाणं विवरीयमओ उ अनियट्टी
॥ ८९ ॥ थूलाण लोभखंडाणुवेयओ बाायरो मुणेयव्वो। सुहुमेण होइ सुहुमो उवसन्तेहिं तु उवसन्तो
।। ९०॥ खीणम्मि मोहणीए खीणकसाओ सजोगुजोगाणं । होइ पउत्ता ते अपउत्ता होइ हु अजोगी य
|| ९१ ।।
॥ ८७॥
॥८८॥
39
For Private And Personal Use Only