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थुइ मंगल वंदण वायणाउ, आवस्सय त्ति मण्णेह । दुहं ठेवणायरणं, तइयस्स कहं तु पडिसेहो ठविउण उत्तरिज्झं, सनाममुद्दं तहेव समणस्स | जिणवीरस्स समीवे, पडिवज्झिय धम्मपण्णति विहरइ एगग्गमणो, नाणं कुंडकोलिओ एवं । सत्तमअंगे दिस्सर, किरिया गुरु ठवण अहिनाणं जइ नणु न होइ ठवणा, ता कीस सुरेण धम्मविग्घकए । सा चैव झत्ति गहिया, वीरयबलनिरहिलासेण
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विहिए निपिट्ठपसिणे, तत्थेव ठवित्तुं तं गओ अमरो । एएणं संभवेणं, जिणगुरुठवणा पमाणं मे
पू. आ. श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि विरचितम् ॥ सप्तपदी शास्त्रम् ॥
वीरजिणं नमिऊणं, अमरिंदन रिंदपणयपयजुयलं । साहूण सामायारिं, सुयाणुसारेण वच्छामि गच्छट्टिई संभोगा-संभोगविहिं मुणीण दिणचरियं । पंचपडिक्कमणविहि, उदयतिहीए सरूवं च सड्ढाणुवहाणविहिं, उवएसविहिं सुयाणुसारेण । सुगुरूण वयणवयणं, सोऊणमहं पवक्खामि गणहरइक्कारसगं, गणनवगं आसि वीरनाहस्स | सत्तण्हं च गणाणं, सत्तगणी वायणं दिति
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वेद मुणि तिहि सुवरिसे, (१५७४) पंडियसिरिसाहुरयणसीसेण । पासचंदेण विहिया, ठवणा पंचासिया एसा
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