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॥ ३९ ॥
जिनपतिमतदुर्गे कालतः साधुवेषै - विषयिभिरभिभूते भस्मकम्लेच्छसैन्यैः । स्ववशजडजनानां शृङ्खलेव स्वगच्छेस्थितिरियमधुना तैरप्रथि स्वार्थसिद्ध्यै सम्प्रत्यप्रतिमे कुसङ्घवपुषि प्रोज्जृम्भिते भस्मकम्लेच्छातुच्छबले दुरन्तदशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति । प्रौढिं जग्मुषि मोहराजकटके लोकैस्तदाज्ञापरैरेकीभूय सदागमस्य कथयापीत्थं कदर्थ्यामहे
॥ ४० ॥
पू.आ.श्रीजिनदत्तसूरिविरचिता
॥ चर्चरी ॥ नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह पायकमलु ससिनिम्मलु सिवगयगामियह। करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरिजिणवल्लहह जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तणइ जाणइ जिव नियनामु न तिण जिव कुवि घणइ । परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु तसु गुणवण्णणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ? जो वायरणु वियाणइ सुहलक्खणनिलउ स? असद्दु वियारइ सुवियक्खणतिलउ। सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ गुरु लहु लहि पइठावइ नरहिउ विजयमउ
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