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जह खंडणमयमं- डणाई रुण्णाई सुण्णरण्णम्मि । विहलाई तह जाणसु, आणारहियं अणुट्ठाणं आणाइ तवो आणाइ, संजमो तह य दाणमाणाए । आणारहिओ धम्मो, पलालपुल्लूव पडिहाई आणाखंडणकारी, जइ वि तिकालं महाविभूईए । पूएइ वीयरायं सव्वं पि निरत्थयं तस्स
रण्णो आणाभंगे, इकुच्चिय होइ निग्गहो लोए । सव्वण्णुआणभंगे, अणंतसो निग्गहो होइ
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जह भोयणमविहिकयं, विणासए विहिकयं जियावेई । तह अविहिकओ धम्मो, देइ भवं विहिकओ मुक्खं मेरुस्स सरिसवस्स य, जित्तियमित्तं तु अंतरं होइ । दव्वत्थयभावत्थय- अंतरमिह तित्तियं नेयं
उक्कोसं दव्वत्थय-आराहओ जाव अच्चुअं जाई । भावत्थएण पावइ, अंतमुहूत्तेण निव्वाणं जत् य मुणिणो कवि-क्कयाइ कुव्वंति निच्चपब्भट्ठा । तं गच्छं गुणसार ! विसं व दूरं परिहरिज्जा
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जत्थ य अज्जालद्धं, पडिग्गहमाइ य विविहमुवगरणं । पडिभुंजइ साहूहिं, तं गोयम ! केरिसं गच्छं ? जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो य अगच्छ गच्छो, संजमकामीहिं मुत्तव्वो
गच्छं तु उवेहंतो, कुव्वइ दीहं भवं विहीए उ । पालतो पुण सिज्झइ, तइअभवे भगवईसिद्धं जत्थ हिरण्णसुवणं, हत्थेण पराणगं पि नो छिप्पे । कारणसमल्लियं पि हु, गोयम ! गच्छं तयं भणियं
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