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संसज्जहि आहार निसि, जिय तिण-सम रस-वण्ण । ते जाणंता किम गिलहि, जे नर सहिय सकण्ण जे रयणिहिं दियहि वि अबुह अच्छहिं आहरम[1]ण । ते रक्खस धर-भार-यर अहवा पसु अ-विसाण जे दिणु मिल्लिवि मूढ़-मइ, रयणिहिं परिभुंजंति । ते कप्प-दुमु अवगणिवि, विस-वल्लिहिं रज्जंति जे निसि-भोयणि रइ करहिं, ते मय हुँति सियाल। अहि विच्छिय गोहा नउल, घूयड़ काय बिडाल निसि-भोयणि निरयहँ नरहँ, दुलहउ परि भवि होइ। सयणु असणु धणु-कणु वसणु, जिह अंधह वर जोइ दिणु अवहीरि विहावरिहिं, जे धम्मत्थु जिम्वति । ते संति वि पल्ललि अबुह, ऊसरि बीउ ववंति जे विरमहि निसि भोयणहँ, वंछिय सिव-पय-वास। तह धण्णह सुविवेइयह, अद्धव जम्मुववास जं सव्वण्णुहि वारियउ, सत्थि अणेय-पयारु। जम्म-दुगिवि निसि-भोयणह, तसु सोहणु परिहारु अहिं परिचत्तउ निसि-असणु, जाणेविणु परमत्थु । तह पर-अप्प सुहावहह, भवि भवि मंगल मत्थु मज्जु विहोड़इ मइ-विहवु जिव कंजिउ वर-खीरू । तेण विहूणउ दुह लहइ, तो तं पियइ न धीरु खण मित्तेण वि जो हरइ, जाया जणणि विहाउ। भूरि विडंबण कुल भुवणु, सो कह होउ सुसाउ असमंजस चिट्ठिय जणइ, मज्जु अणेय पयार । जिहिं दिविहिं विसिट्ठयण, लज्जहिं नट्ठवियार
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