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मोहारि- वगु जो निग्गहेइ सो तिण्णि वि रयणइं लहु लहेइ। जो मणु पसरतं धरइ ठाइ सो समरसिसित्तउ मुक्खु जाइ ॥ १६ ॥ किं पढिय गुणियसुणिएण तेण अण्णाणकट्ठ किं वयतवेण । जं न पाविय उवसम-रस-निहाणु एउ परम-तत्तु एउ परम-झाणु।। १७ ॥ एवं जाणेविणु भग्गु लहेविणु कायव्वं भो अप्पहिउ। आगमअणुसारिहिं जिणपहसूरिहिं धम्माधम्मविचारु किउ ॥ १८ ॥
॥१॥
॥२॥
॥३॥
पू.आ.श्री इन्द्रनन्दिसूरिशिष्यविरचितम्
॥वैराग्यरङ्गकुलकम् ॥ पणमिय सयलजिणिदे निअगुरुचलणे अ महरिसी सव्वे । वेरग्गभावजणयं भावणकुलयं लिहेमि अहं जीवाण होइ इटुं सुखं मुक्खं विणाओ तं नत्थि। जइ अस्थि किमवि ता पुण निच्चं वेग्गरसिआणं तम्हा रागमहायव-तविएण अईव सेविअव्वमिणं । तदुवसमकए सीयलविमलवेग्गरंगजलं वेरगजलनिमग्गा चिटुंति जिआ सयावि जे तेसिं । वम्महदहणाउ भयं थोवं पिन हुज्ज कइआवि बहुविह विसयपिवासा-नइसंगमवड्डमाणरागजलं । कुविकप्पनक्कचक्काइ-दुट्ठजलयरगणाइण्णं पज्जलिअमयणवाडव-बिभीसणं जइ पुमं महसि तरिउं । तारुण्णसायरं ता आरुअह वेरगवरपोअं वेग्गवरतुरंगं चडिओ पावेसि सिवपुरं झत्ति । जइ कुज्ज भावणगई-अब्भासो तस्स पुव्वकओ
॥६॥
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