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॥२॥
विजयदानसूरिशिष्येण विरचितम्
॥ प्रत्याख्यानकुलकम् ॥ नमिऊण सुगुरुचलणं पच्चक्खाणस्स जं फलं होइ। तं भविअबोहणत्थं कहेमि सुगुरूवएसेणं जं नरए नेरइआ खवंति कम्मं सएण वरिसेहिं । तं कम्मं नवकारिसिपच्चक्खाणेण मुणिणो वि वरिससहस्सपमाणं पच्चक्खाणेण पोरिसीए वि। वरिसाण सहसदसगं सड्ढाए सुद्धपोरिसिए पुरिमड्ढे इगलक्खं एगासणगम्मि लक्खदसगं च । निव्वीइ वरिसकोडी एगलठाणम्मि दस कोडी इगदत्ति कोडिसयगं अंबिलए कोडिसहस्सवरिसाई । दस कोडिसहस्सवरिसं पमाणकम्मं खवंति उववासे छद्रेण कोडिलक्खं अट्ठम दसकोडिलक्खवरिसाइं। एगा कोडाकोडी दसमेण तवेण सुद्धफलं इअ पच्चक्खाणफलं लिहिअं गुरुविजयदानसीसेण । नाऊणं भो भविआ ! कुणसु सया पच्चक्खाणाई
॥४॥
॥६॥
पू.तिलकाचार्यविरचितासामाचारी समुद्धृत
॥तपकुलकम् ॥ नमिऊण वद्धमाणं, तवस्सरूवं कहेमि भवियाणं । जेण इमे जाणेउं, तवे तवंतीह सिवहेडं चउवीसजिणाणं पणकल्लाणदिणेसु होइ तवियव्वं । सत्तीइ नाणपंचमी-तवं पि सययं पि कायव्वं
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