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छज्जीवणिया उवरि भणंति के वि कम्मरोगिणो सुत्तं । अप्पत्थ अंबरसलुद्धनिवमिव तं तेसिऽणत्थकरं || ९३॥ देवे गुरुम्मि संघे भत्तीए सासणम्मि जं महिमं । कीरइ सो आयारो चउत्थठाणम्मि सड्डाणं
॥ ९४॥ वज्जिज्जा उड्डाहं अण्णेसिं हि वि सावयाण किं चुज्जं । चिंतइ पुण उड्डाहं सासणे हुज्ज सा कहवि
॥ ९५॥ खुद्दत्तणपरिहरणं परोवयारे तहेव आउत्तो। अरिहंताई एसो नेयव्वो पंचमो पुरिसो
॥ ९५ ॥ जइ छत्तीस गुणच्चिय गुरुणो ताइ वीस गुणजुत्ता(?) । गिहिणो वि हु जोइज्जा इयव(य)? णाओ परिनिसेहो ॥९६ ॥ जत्थ य छत्तीस गुणा मिलिया लब्भंति नेय गच्छम्मि। दोहिं चेव गुणेहिं सो वि पमाणीकओ होई
॥९७ ॥ जइ गच्छम्मि सुकज्जे सारणा वारणा अकज्जम्मि। ता ववहारनएणं ववहाररउ च्चिय सुसड्ढो
॥ ९८ ॥ एएणं भणिएणं गुरुभत्ती होइ परुवयारं च । ता एएसिं दुण्ह वि मा हुज्जा कह वि मह विरहो ॥ ९९॥ केई उवएसमिमं सोउं दुम्मंति सावया हियए । तं अण्णाणं जम्हा करणिज्जमिणं तु सड्डाणं
॥ १०० ॥ सिरिवीरसासणे सत्त निण्हवा आसि जे पुरा तेसि । चउरो सड्ढेहि चिय विबोहिया पवरजुत्तीहिं
॥१०१ ॥ इत्थ य जं पुण भणिए उस्सुयवयणं हविज्ज जइ कहवि। सोहिंतु तं बहुसुया मह उवरिमणुग्गहं काउं
॥ १०२॥ जिणपवयणस्स सारं संगहिऊणं गुरूवएसेण । इय सीधरेण रइयं नंदउ गुरुठावणासयगं
॥ १०३ ॥
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