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१. धर्मोपदेशामृतम्
तत्त्वाभ्यासः स्वकीयवतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तगार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः ॥ १३ ॥ 14) आदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमितः सामायिकं प्रोषेधस्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभुक्तं तथा ब्रह्म च । नारम्भो न परिग्रहो ऽननुमतिनद्दिष्टमेकादश स्थानानीति गृहिते व्यसनितात्यागस्तदाद्यः स्मृतः ॥ १४ ॥
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क्रियते । यत्र गृहपदे अमलं दर्शनं भवति । तद्गृहपदं बुधैः पूज्यम् । पुनः इतरत् द्वितीयं क्रियादानरहितं गृहपदं दुःखदः मोहपाशः ॥ १३ ॥ गृहिवते गृहस्थधर्मे इति एकादशस्थानानि सन्ति । धर्मार्थं तान्येव दर्शयति । आदौ प्रथमतः । दर्शनं दर्शनप्रतिमा १ । इतः पश्चात् व्रतं व्रतप्रतिमा २ । ततः सामायिकं सामायिकप्रतिमा ३ । ततः प्रोषधं प्रोषधोपवासप्रतिमा ४ । च पुनः । एव निश्चयेन । सचित्तवस्तुनि त्यागः ५ । ततः दिवाभुक्तं रात्री स्त्री असेव्या (?) ६ । तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्यप्रतिमा ७ । आरम्भो न ८ । परिग्रहो न ९ । अनुमतिर्न १० । उद्दिष्टं न ११ । गृहिधर्मे एकादश स्थानानि कथितानि । तासां प्रतिमानां आद्यस्तदाद्यः व्यसनिता
जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानोंके लिये ( पूज्य ) पूजनेके योग्य है । और इससे विपरीत गृहस्थ अवस्था यहां लोकमें दुःखदायक मोहजाल ही है ॥ १३ ॥ सर्वप्रथम उन्नतिको प्राप्त हुआ सम्यग्दर्शन, इसके पश्चात् व्रत, तत्पश्चात् क्रमशः सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त वस्तुका त्याग, दिनमें भोजन करना अर्थात् रात्रिभोजनका त्याग, तदनन्तर ब्रह्मचर्यका धारण करना, आरम्भ नहीं करना, परिग्रहका न रखना, गृहस्थीके कार्यों में सम्मति न देना, तथा उद्दिष्ट भोजनको ग्रहण न करना; इस प्रकार ये श्रावकधर्ममें ग्यारह प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं । उन सबके आदिमें द्यूतादि दुर्व्यसनों का त्याग स्मरण किया गया है अर्थात् बतलाया गया है । विशेषार्थ - सकलचारित्र और विकलचारित्रके भेदसे चारित्र दो प्रकारका है। इनमें सकलचारित्र मुनियोंके और विकलचारित्र श्रावकोंके होता है । उनमें श्रावकोंकी निम्न ग्यारह श्रेणियां (प्रतिमायें ) हैं - दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, दिवामुक्ति, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग । ( १ ) विशुद्ध सम्यग्दर्शनके साथ संसार, शरीर एवं इन्द्रियविषयभोगोंसे विरक्त होकर पाक्षिक श्रावक के आचारके उन्मुख होनेका नाम दर्शनप्रतिमा है । ( २ ) माया, मिथ्या और निदानरूप तीन शल्योंसे रहित होकर अतिचार रहित पांच अणुव्रतों एवं सात शीलवतोंके धारण करनेको व्रतप्रतिमा कहा जाता है । ( ३ ) नियमित समय तक हिंसादि पांचों पापों का पूर्णतया त्याग करके अनित्य व अशरण आदि भावनाओंका तथा संसार एवं मोक्षके स्वरूप आदिका विचार करना, इसे सामायिक कहते हैं । तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक इसे प्रातः, दोपहर और सायंकालमें नियमित स्वरूपसे करता है । ( ४ ) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको सोलह पहर तक चार प्रकारके भोजन ( अशन, पान, खाद्य और लेह्य ) के परित्यागका नाम प्रोषधोपवास है । यहां प्रोषध शब्दका अर्थ एकाशन और उपवासका अर्थ सब प्रकारके भोजनका परित्याग है । जैसे-यदि अष्टमीको प्रोषधोपवास करना है तो सप्तमीके दिन एकाशन करके अष्टमीको उपवास करना चाहिये और तत्पश्चात् नवमीको भी एकाशन ही करना चाहिये । प्रोषधोपवासके समय हिंसादि पापोंके साथ शरीर श्रृंगारादिका भी त्याग करना अनिवार्य होता है । ( ५ ) जो वनस्पतियां निगोदजीवों से व्याप्त होती हैं उनके त्यागको सचित्तत्याग कहा जाता है । ( ६ ) रात्रिमें भोजनका परित्याग
१ श प्रौषधः । २ भ क दिवाभक्तम् ।