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१. धर्मोपदेशामृतम्
9 ) संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृतः के के न पित्रादयो जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु' ते सर्वे भवन्त्याहताः । पुंसात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेषु ध्रुवम् हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो नु क्रुधः ॥ ९ ॥ 10 ) त्रैलोक्यप्रभुभावतो ऽपि सरुजो ऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः । निःशेषव्रतशील निर्मल गुणाधारात्ततो निश्चितं जन्तोर्जीवितदान तस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु ॥ १० ॥
पुनः । सर्वत्र शून्या दिशः । अत एव दया कार्या ॥ ८ ॥ तनुभृतः प्राणिनः । संसारे चिरं चिरकालं भ्रमतः के के पित्रादयो न जाताः । तेषां प्राणिनां वधम् आश्रितेन पुंसा पुरुषेण । ते सर्वे पित्रादयः आहताः भवन्ति । ननु अहो । आत्मापि हृतः । यत् यस्मात् कारणात् । अत्र संसारे । यः निहतः । ध्रुवं निश्चितम् । जन्मान्तरेषु । हन्त इति खेदे । नु इति वितर्के । हन्तारं पुरुषम् । बहुशः बहुवान् । प्रतिहन्ति मारयति । कस्मात् । क्रुधः संस्कारतः क्रोधस्य स्मरणात् ॥ ९ ॥ ततः कारणात् । निश्चितम् । त्रिभुवने संसारे । जन्तोः जीवस्य । जीवितदानतः सकाशात् अन्यत्सर्वप्रदानं लघु । निःशेषवतशील निर्मलगुणाधारात् निःशेषाः संपूर्णाः व्रतशीलनिर्मलगुणास्तेषाम् आधारस्तस्मात् । प्राणिनः जीवस्य । त्रैलोक्यप्रभुभावतः प्रभुत्वतः अपि एकं निजं जीवितं प्रेयः वल्लभम् । किंलक्षणस्य । सरुजोऽपि रोगयुक्तस्य पुरुषस्य । पुनः किंलक्षणस्य
दयायुक्त आचरण करें || ८ || संसारमें चिर कालसे परिभ्रमण करनेवाले प्राणीके कौन कौनसे जीव पिता, माता
भाई आदि नहीं हुए हैं ? अत एव उन उन जीवोंके घातमें प्रवृत्त हुआ प्राणी निश्चयसे उन सबको मारता है । आश्चर्य तो यह है कि वह अपने आपका भी घात करता है । इस भवमें जो दूसरेके द्वारा मारा गया है वह निश्चयसे भवान्तरोंमें क्रोधकी वासनासे अपने उस घातकका बहुत वार घात करता है, यह खेदकी बात है ॥ विशेषार्थ - जन्म-मरणका नाम संसार है । इस संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणीके भिन्न भिन्न भवोंमें अधिकतर जीव माता-पिता आदि सम्बन्धोंको प्राप्त हुए हैं । अत एव जो प्राणी निर्दय होकर उन जीवोंका घात करता है वह अपने माता-पिता आदिका ही घात करता है। और तो क्या कहा जाय, कधी जीव अपना आत्मघात भी कर बैठता है । इस क्रोधकी वासनासे इस जन्ममें किसी अन्य प्राणीके द्वारा मारा गया जीव अपने उस घातकका जन्मान्तरोंमें अनेकों वार घात करता है । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो क्रोध अनेक पापोंका जनक है उसका परित्याग करके जीवदया में प्रवृत्त होना चाहिये || ९ || रुग्ण प्राणीको भी तीनों लोकोंकी प्रभुताकी अपेक्षा एक मात्र अपना जीवन ही प्रिय होता है । कारण यह कि वह सोचता है कि जीवनके नष्ट हो जानेपर वह तीनों लोकोंकी प्रभुता भला किसको प्राप्त होगी । निश्चयसे वह जीवनदान चूंकि समस्त व्रत, शील एवं अन्यान्य निर्मल गुणोंका आधारभूत है अत एव लोकमें जीवके जीवनदानकी अपेक्षा अन्य समस्त सम्पत्ति आदिका दान भी तुच्छ माना जाता है || विशेषार्थ - प्राणों का घात किये जानेपर यदि किसीको तीन लोकका प्रभुत्व भी प्राप्त होता हो तो वह उसको नहीं चाहेगा, किन्तु अपने जीवितकी ही अपेक्षा करेगा । कारण कि वह समझता है कि जीवितका घात होनेपर आखिर उसे भोगेगा कौन ? इसके अतिरिक्त व्रत, शील, संयम एवं तप आदिका आधार चूंकि उक्त जीवनदान ही है अत एव अन्य सब दानोंकी अपेक्षा जीवनदान ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है ॥ १० ॥
१ श ननु । २ क ब नन्वात्मापि । ३ श बहुशः वारान् ।