________________
प्रस्तावना
उसके जाननेमें हेतुभूत जो नय है वह दो प्रकारका है- शुद्ध नय और व्यवहार नय । इनमें व्यवहार नय तो अज्ञानी जनको प्रबोध करनेके लिये है, कर्मक्षयका कारण यथार्थमें शुद्ध नय ही है । व्यवहार नय यथावस्थित वस्तुको विषय न करनेके कारण अभूतार्थ और शुद्ध नय यथावस्थित वस्तुको विषय करनेके कारण भूतार्थ कहा जाता है । वस्तुका यथार्थ स्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया जाता है वह व्यवहारके आश्रयसे ही किया जाता है । चूंकि मुख्य और उपचार के आश्रित किया जानेवाला सब विवरण उस व्यवहारके ऊपर ही निर्भर है, अत एव इस दृष्टिसे उसे भी पूज्य माना गया है ( ८-११ ) ।
४७
आगे शुद्ध नयके आश्रयसे रत्नत्रयके स्वरूपको बतलाकर यह निर्देश किया है कि जिसने समस्त परिग्रहको छोड़कर जंगलका आश्रय ले लिया है तथा जो वहां स्थित रहकर सब प्रकारके उपद्रवोंको भी सह रहा है, वह यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है तो फिर उसमें और बनके वृक्षमें कोई भेद नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, वह भी तो विवेकसे रहित होकर इसी प्रकारके कष्टोंको सहता है ( १६ ) । इस प्रकार से सम्यग्ज्ञान और उस चित्स्वरूपकी महिमाको बतलाकर निश्वयसे मैं कौन व कैसा हूं तथा मेरा कर्म व तत्कृत राग-द्वेषादिसे क्या सम्बन्ध है; इत्यादि विचार किया गया है । जो आत्माको बद्ध देखता है वह संसारमें बद्ध ही रहता है और जो उसे मुक्त देखता है वह मुक्त ही हो जाता है, अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे छूट जाता है । जब जीवको विशुद्ध आत्माका अनुभवन होने लगता है तब वह इन्द्रकी भी विभूतिको तृणके समान तुच्छ समझता है ।
१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति -- इस अधिकारमें २२ श्लोक हैं। यहां प्रथमतः दुर्जेय काम- सुभटको जीत लेनेवाले मुनियोंको नमस्कार करके ब्रह्मचर्यके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा है कि 'ब्रह्म' का अर्थ विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा होता है, उस आत्मामें चर्य अर्थात् रमण करनेका नाम ब्रह्मचर्य है । यह निश्चय ब्रह्मचर्यका स्वरूप है । वह उन मुनियोंके होता है जो स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, किन्तु अपने शरीरसे भी निर्ममत्व हो चुके हैं । ऐसे जितेन्द्रिय तपस्वी सब स्त्रियोंको यथायोग्य माता, बहिन व बेटीके समान देखते हैं । इस ब्रह्मचर्यके विषयमें यदि कदाचित् स्वममें दोष उत्पन्न होता है तो वे रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं । उस ब्रह्मचर्यके रक्षणका मुख्य उपाय यद्यपि मनका संयम ही है, फिर भी गरिष्ठ व कामोद्दीपक भोजनका परित्याग भी उसके संरक्षणमें सहायक होता हैं । ( १-३ ) इस ब्रह्मचर्यको सुरक्षित रखनेके लिये यहां स्त्रियोंके निन्द्य रूप व लावण्य आदिकी अस्थिरताको दिखलाकर ( १२-१५) रागपूर्ण दृष्टिसे उनके अंगोपांगों को देखना, उनके समीपमें रहना, उनके साथ वार्तालाप करना और उनका स्पर्श करना; इस सबको अनर्थपरम्पराका कारण बतलाया गया है ( ९ ) ।
१३. ऋषभस्तोत्र - यह प्रकरण प्राकृत भाषामें रचा गया है। इसमें ६० गाथायें हैं । यहां ग्रन्थकर्ता नाभिराय एवं मरुदेवीके पुत्र भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति करनेमें इस प्रकार अपनी असमर्थताका अनुभव करते हैं जिस प्रकार कुऍमें रहनेवाला क्षुद्र मेंढक समुद्रके विस्तार आदिका वर्णन नहीं कर सकता ।