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पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य नरेशके सामन्त थे। उन्होंने कोल्हापुरमें अपने अधिपतिके नामसे 'रूपनारायणबसदि' नामक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था तथा कार्तिक वदि ५ शक सं. १०५८ (वि. सं. ११९३ ) में कोल्हापुर व मिरजके आसपासके ग्रामोंकी आयका दान भी दिया था । मूलग्रन्थकार व टीकाकारके नाम-साम्य व रचनाकालको देखते हुए यह भी प्रतीत होता है कि वे एक ही व्यक्ति हों, किन्तु न तो उनके दीक्षा व शिक्षा गुरुओंके नाम एकसे मिलते और न वृत्तान्तमें इसका कोई स्पष्ट संकेत प्राप्त होता । इस कारण उनका एकत्व सन्देहात्मक ही है।
७. पद्मनन्दि-पंचविंशतिकी हिन्दी वचनिका ऊपर 'च' प्रतिके परिचयमें उस प्रतिके साथ उपलभ्य 'वचनिका'का परिचय दिया जा चुका है। यह वचनिका ढुंढारी ( राजस्थानमें जयपुरके आसपास बोली जानेवाली ) हिन्दी भाषामें लिखी गई है। उक्त प्रतिकी प्रशस्तिके अनुसार ढुंढाहर देशवर्ती जयपुर नगरके राजा रामसिंहके राज्यकालमें सांगानेर बाजारमें स्थित खिन्दुकाके जैन मन्दिरमें पद्मनन्दि-पंचविंशतिका स्वाध्याय व उसपर धर्मचर्चा चला करती थी। एक वार सब पंचोंके हृदयमें यह भावना उत्पन्न हुई कि इस ग्रन्थकी भाषा-वचनिका लिखी जाय । यह कार्य वहांके ज्ञानचन्द्रके पुत्र जौहरीलालको सौंपा गया । किन्तु वे आठवें प्रकरण 'सिद्धस्तुति' तककी वचनिका लिखकर स्वर्गवासी हो गये । तब शेष ग्रन्थको पूरा करनेका कार्य हरिचन्द्रके पुत्र मन्नालालको सौंपा गया और उन्होंने उसे संवत् १९१५ मृगशिर कृष्णा ५, गुरुवारको समाप्त किया । इस प्रकार यह हिन्दी टीका केवल एक सौ तीन वर्ष पुरानी है और उसे जौहरीलाल और मन्नालाल इन दो विद्वानोंने क्रमसे रचा है। इस रचनामें प्रथम मूल संस्कृत या प्राकृत पद्य, उसके नीचे हिन्दीमें शब्दार्थ और तत्पश्चात् उसका भावार्थ लिखा गया है।
८. विषय-परिचय 'पद्मनन्दि-पञ्चविंशति' इस ग्रन्थनाभसे ही सूचित होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थमें श्रीमुनि पद्मनन्दीके द्वारा रचित पच्चीस विषय समाविष्ट हैं, जो इस प्रकार हैं
१. धर्मोपदेशामृत-इस अधिकारमें १९८ श्लोक हैं । यहां सर्वप्रथम (श्लोक ६) धर्मके उपदेशका अधिकारी कौन है, इसको स्पष्ट करते हुए यह बतलाया है कि जो सर्वज्ञ होकर क्रोधादि कषायोंकी वासनासे रहित हो चुका है वह निर्बाध सुखके देनेवाले उस धर्मका उपदेश या व्याख्यान किया करता है
और वही इस विषयमें प्रमाण माना जाता है। हेतु इसका यह बतलाया है कि लोकमें असत्यभाषणके दो ही कारण देखे जाते हैं-अज्ञानता और कषाय । जो भी कोई किसी विषयका असत्य विवेचन करता है वह या तो तद्विषयक पूर्ण ज्ञानके न रहनेसे वैसा करता है या फिर क्रोध, मान अथवा लोभ आदि किसी कषायविशेषके वशीभूत होकर वैसा करता है। इसके अतिरिक्त उस असत्यभाषणका अन्य कोई कारण हष्टिगोचर नहीं होता । इसीलिये जो इन दोनों कारणोंसे रहित होकर सर्वज्ञ और वीतराग बन चुका है वही यथार्थ धर्मका वक्ता हो सकता है और उसे ही इसमें प्रमाण मानना चाहिये ।
कोई यात्री जब एक देशसे किसी दूसरे देश अथवा नगरको जाता है तब वह अपने साथ पाथेयकोमार्गमें खानेके योग्य सामग्रीको-अवश्य रख लेता है । इससे उसकी यात्रा सुखसे समाप्त होती है-उसे