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२४. शरीराष्टकम् त्याज्या तेन तनुर्मुमुक्षुभिरियं युक्त्या महत्या तया
नो भूयो ऽपि ययात्मनो भवकृते तत्संनिधिर्जायते ॥७॥ 922 ) रक्षापोषविधौ जनो ऽस्य वपुषः सर्वः सदैवोद्यतः
कालादिष्टजरा करोत्यनुदिनं तजर्जरं चानयोः। स्पर्धामाश्रितयोर्द्वयोर्विजयिनी सैका जरा जायते साक्षात्कालपुरःसरा यदि तदा कास्था स्थिरत्वे नृणाम् ॥ ८॥
तनुः । तया महत्या युक्त्या कृत्वा त्याज्या यया युक्त्या भूयोऽपि । भवकृते' कारणाय । आत्मनः । तस्य शरीरस्य । संनिधिः निकटम् । न जायते ॥७॥ सर्वः जनः । अस्य वपुषः शरीरस्य । रक्षापोषविधौ सदा उद्यतः । अनुदिनम् । कालादिष्टजरा कालेन प्रेरिता जरा। तत् शरीरम् । जर्जरं करोति । च पुनः । अनयोः जनजरयोः द्वयोः। स्पर्धाम ईर्ष्याम आश्रितयोः मध्ये यदि सा एका जरा साक्षात् विजयिनी जायते तदा नृणां स्थिरत्वे का आस्था । कथंभूता जरा । कालपुरःसरा ॥८॥ इति शरीराष्टकम् ॥२४॥
ऐसी महती युक्तिसे छोड़ना चाहिये कि जिससे संसारके कारणीभूत उस शरीरका सम्बन्ध आत्माके साथ फिरसे न हो सके ॥ विशेषार्थ-प्रथमतः लोहको अग्निमें खूब तपाया जाता है। फिर उसे घनसे ठोकपीटकर उसके उपकरण बनाये जाते हैं । इस कार्यमें जिस प्रकार लोहेकी संगतिसे व्यर्थमें अग्निको भी घनकृत घातोंको सहना पड़ता है उसी प्रकार शरीरकी संगतिसे आत्माको भी उसके साथ अनेक प्रकारके दुख सहने पड़ते हैं। इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि तप आदिके द्वारा उस शरीरको इस प्रकारसे छोड़नेका प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे पुनः उसकी प्राप्ति न हो। कारण यह कि इस मनुष्यशरीरको प्राप्त करके यदि उसके द्वारा साध्य संयम एवं तप आदिका आचरण न किया तो प्रणीको वह शरीर पुनः पुनः प्राप्त होता ही रहेगा और इससे शरीरके साथमें कष्टोंको भी सहना ही पड़ेगा ॥ ७॥ सब प्राणी इस शरीरके रक्षण और पोषणमें निरन्तर ही प्रयत्नशील रहते हैं, उधर कालके द्वारा आदिष्ट जरा- मृत्युसे प्रेरित बुढ़ापा- उसे प्रतिदिन निर्बल करता है । इस प्रकार मानों परस्पर में स्पर्धाको ही प्राप्त हुए इन दोनोंमें एक वह बुढ़ापा ही विजयी होता है, क्योंकि, उसके आगे साक्षात् काल ( यमराज ) स्थित है। ऐसी अवस्थामें जब शरीरकी यह स्थिति है तो फिर उसकी स्थिरतामें मनुष्योंका क्या प्रयत्न चल सकता है ? अर्थात् कुछ भी उनका प्रयत्न नहीं चल सकता है ।। ८॥ इस प्रकार शरीराष्टक अधिकार समाप्त हुआ ॥२४॥
१६श भूयोऽपि तत्कृते संसारकते।